मथुरा | Mathura

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Mathura by कृष्णदत्त बाजपेयी - Krishndatt Bajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ वंघ बना लिया था । इस सधक दो मुखिया चुने गय--श्रधकों के प्रतिनिधि उग्रसेन श्रौर वृष्णियों के कृष्णं । संघ को व्यवस्था बहुत समय तक सफलता के साथ चलती रही श्रौर उसके गासन से प्रजा सन्तुष्ट रही । प्राचीन मथरां का वणन--शत्नध्न के समय मं श्नौर उसके बाद मधरा या मथुरा नगरौ कं श्राकार श्रोर विस्तार का सम्यक्‌ पतानहीं चलता । प्राचीन पौराणिक वणेनो सं इस सम्बन्ध मे कचित्‌ जानकारी प्राप्त होती हं \ हरिवंश से ज्ञात होता हे कि पुरानी नगरी यमुना नदी के तट पर बसी हुई थी रौर उसका श्राकार श्रष्टमी के चन्द्रसा-जसा था। उसके चारों श्रोर नगर-दीवाल थी, जिसमें ऊंचे तोरण-ढार थे । दीवाल के बाहर खाई बनी हुई थी। नगरी धन-धान्य श्र समृद्धि से पूर्ण थी । उसमें श्रनेक उद्यान श्रोर वनथे। पुरो की स्थिति सब प्रकार से मनोज्ञ थी । मकान अट्रालिकाओं श्रौर सुन्दर द्वारों से युक्त थ। उनमें विविध वस्त्राभूषणों से श्रलंकृत स्त्री-पुरुष निवास करते थे। ये लोग राग- रहित श्रौर बीर थे । उनक पास बहुसंख्यक हाथी, घोड़े श्र रथ थे । नगर के बाजारों में सभी प्रकार का क्रय-विक्रय होता था रौर रत्नों कं ढेर विद्यमान थे । सथुरा की भमि बड़ी उपजाऊ थी श्रौर समय पर वर्षा होती थी। मथुरा नगरी के रहने वाले सभी स्त्री-पुरुष प्रसन्न-चित्त दिखाई पडते थे (२६) । यमुना नदी का प्रवाह प्राचीनं कालसे बदलताग्रायाहं। मधुर शत्रघ्न के समय में यमुना की धारा उस स्थान के पास से बहती रही होगी जसे श्रब महोली कहते हैं । वर्तमान सथरा नगरी श्रौर महोलो क बीच में बहुत से पुराने टीले दिखाई पड़ते हं। इन टोलों से विविध प्राचीन श्रवशेष बड़ी सख्या म प्राप्त हए हं, जिनसे इस बात को पुष्टि होती ह कि इधर पुरानी बस्ती थो। इस भ-भाग की व्यवस्थित खदाई होने पर सम्भवत: इस बात का पता चल सकेगा कि विभिन्न कालों में सथरा की बस्ती मं क्या-क्या परिवतन हुए । वराह पुराण (श्रध्याय १६५, २१ ) से ज्ञात होता हैं. कि किसी समय मथुरा नगरी गोवधंन पवत श्रौर यमना नदी के बीच बसी हुई थी भ्रौर इनके बीच की दूरी अधिक नहीं थी ।. वतंसान स्थिति एसो नहीं हं, क्योकि भ्रव गोवधेन यमुना से काफी दूर हं। एसा प्रतीत होता हे कि किसी समय गोवर्धन श्रौर यमुना के बीच इतनी दूरी न रही होगी जितनी कि आ्राज है। हरिवंश पुराण में भी कुछ इस प्रकार का संकत प्राप्त होता है । (२७) जके (२६) “सा पुरी परमोदारा साट्रप्राकारतोरणा । स्फोता राष्ट्समाकीर्णा समृदढधबलवाहना ।। ५७।। उद्यानवनसंपन्ना सुसीमा सुप्रतिष्ठिता । प्राशुप्राकारवसना परिखाकुलमेखला ।। ५८।। चलाटालककयुरा प्रासादवरकुण्डला । सुसवृतद्वारवती चत्वरोद्गारहासिनो ॥ ५६९।। श्ररोगवोरपुरुषा हस्त्ययवरथसंकुला । श्रद्धंचन्द्रप्रतीकाशा यमुनातीरशोभिता ।\ ६०।। पुण्यापणवतो दुर्गा रत्नसंचयगविता । क्षेत्राणि सस्यवत्यस्याः काले देवडच वषंति ।\ ६१।। नरनारी प्रमुदिता सा पुरी स्म प्रकाशते ।' हरिवंश पुराण (पर्व १, श्र० ५४) (२७) “गिरिगॉविध॑तो नाम सयुरायास्त्वदूरतः । ” हरिवंश, (१,५५४, ३६ )




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