पतिव्रता गान्धारी | Pativrata Gandhari

Pativrat Gandhari by कात्यायनीदत्त त्रिवेदी - Katyaynidatt Trivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ पतिद्रता गान्धारी | बेटी ! इस घोर दुःख मे व्याकुल नं होना तुम खद दही समभदार हा, तुम्हे हम क्या समभावं । जाग्र ! अपने पतियों के साथ तुम ने-खटके जाओ ! तुम्हारा कल्याण हो | विदुर की सलाह से महाराज युधिष्ठिर ने माता कुन्ती को उनकी घर में छोड़ दिया श्रौर द्रौपदी को साथ लेकर भाइयों के समेत वे वन को जाने लगे | उन्हं इस तरह दीन-भाव से वन जाते हए देख कर दुःशा- सन इदयादि ममे-भेदी वाक्य कहने लगे । दुःशासन ने ताने से द्रौपदी से कद्दा:-- हे द्रौपदी ! तुमको तो इन्द्रप्रस्थ का नया महल बहुत प्यारा है, वह तुम्हारे ही योग्य बना है । उसे छोड़ कर तुम कहाँ जाओगी । हम में से तुम किसी को श्पना पति बना लो, जा तुम्हें कभी जुए में भी न हारे ओर तुम्हारे साथ उसी महल में रहे । बदले की आग बड़ी बुरी होती है । बदला लेने ही की जलन से दुःशासन ने ये वाक्य कहे थे । द्रौपदी ने इन्द्रप्रत्थ में राजसूय यज्ञ के श्रवसर पर कौरवों की जा हँसी की थी उसी का यह बदला था | पर भीमसेन को इन लोगों की इस प्रकार की बाते' बढ़ी बुरे लगी । वे बड़ श्रभिमानी थे, उन्होने कहाः-- . तुम लोगों की चातें का इस समय उत्तर देना वृधा है । तुम जा चाहो को । पर याद रक्खो कि वन से लौटने पर




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