कुइयाँजान | Kuiyajaan

Kuiyajaan by नासिरा शर्मा - Nasira Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गरमी जमीन को भट्टी बना रही थी। उसी भट्टी में बदलू दो दिन से भूखा-प्यासा बैठा था। भूख से बिलबिलाते हुए उसने पेड़ से गिरी पक्की निमकौली उठाई और उसका खट-मिठ॒ठा रस चूसा । निमकौली खाते हुए चींटे उसके बदन पर चढ़कर जब सरसराते तो वह हाथ से उन्हें झाड़ देता फिर कब्र के पास बैठा-बैठा किसी सूखी शाख के टुकड़े से जमीन पर लकीरें खींचने लगता था। उसको बताया गया था कि उसकी मां सड़क किनारे उसे ख़ड्ाकर पास की दुकान से कुछ लेने गई थी। एक बड़े ट्रक ने उसे ऐसा धक्का मारा कि वह उछलकर दूर जा गिरी और उसी पल दम तोड़ बैठी । मौलाना भीड़ में खड़े तीन-चार वर्ष के रोते उस बच्चे को पुचकारने लगे। कहते हैं उन्हीं ने जैसे-तैसे उसे पाला था। जो उनके बस में था मोटा-झोटा खिलाया-पिलाया और दीनी तालीम भी दी ताकि आगे चलकर वह उनकी विरासत संभाले। कुछ सोचकर बदलू अपनी जगह से उठा और गली-दर-गली लांघता सड़क पर आया । सड़क पार कर वह बड़े घर के नुक्कड़ पर लगे लैंपपोस्ट से टिक गया । चुपचाप खड़ा-खड़ा वह उस घर को ताकता रहा फिर मन-ही-मन कुछ फैसला कर गली में दाखिल हुआ और घर के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो गया। उसके अंदर एक तूफान मौज मार रहा था मगर घंटी बजाने के लिए बढ़े उसके हाथ बीच में ही रुक जाते और वह छटपटाती नजरों से बंद दरवाजे को देखने लगता । 2 मई की तपती दोपहर में अंदरसेवाली गली में कुत्ते पानी की तलाश में बेचैन फिर रहे थे। बार-बार नाली के पास जाकर वह बहती गंदगी को हसरत से देखते फिर सूंघते और मुंह हटा लेते । नाली में बहती गंदगी इतनी गाढ़ी थी कि उससे पानी अलग नहीं था जिसको वह सतह पर से चाटकर अपनी प्यास बुझा सकते । चिड़ियों के गोल मुंडेरों पर बैठे हांफ रहे थे। उनकी व्याकुल नन्ही-नन्ही आंखें आंगन हौज और नलके को ताकते-ताकते धक चुकी थीं । जहां तक वे पानी की तलाश में उड़ सकती थीं उड़ी थीं मगर हर जगह सूखा था। पानी की एक बूंद तक उन्हें कहीं नजर नहीं आ रही थी। उनकी नन्ही-सी जबान उनके तालू से चिपक रही थी। नीचे आंगन में पड़े खटोले पर बदन पर चादर तलपेटे दोनों ऊपर किए अनवरी बेगम बैठी थीं। उनकी बहू शमीमा परेशान-सी कभी दालान में निकल उन्हें देख माथा पीट अंदर लौट जाती या फिर वहीं बावर्चीखाने से आवाल देती । लिल्लाह अम्मी अपने ऊपर न सही हमारे ऊपर रहम कीजिए । दो घड़ा 16 ७ कुइयोंजान




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