ज्ञानार्णव: | Gyanarnav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ उनके श्वयुरके भाई होते ये) से कह दिया था कि उनके आनेकी किसीको ख़बर नही । उस समय वे नगरमे केवल भोजन लेने जितने समगके लिए ही रुकते, शेष समय ईडरके पहाड़ भौर जगलॉमें बिताते । मुनिश्री लल्टु च), श्रीमोहनलालजी तथा श्री नरसीरखको उनके वहाँ पहुँचनेके समाचार मिल गये । वे शोघ्रतासे ईडर पहुँचे । श्रीमदजीको उनके आगमनका समा वार मिला । उन्होंने कहलवा दिया कि मुनिश्री बाहरसे बाहर जगलमें पहुँचे- यहाँ न भावें । साघुगण जंगम चले मये । बादमें श्रीमदूजो भी वहाँ पहुँचे । उन्होंने मुनिश्री लल्छुजीसे एकांतमें अचानक ईडर आनेका कारण पूछा । मुनिश्रीने उत्तर में कहा कि 'हम लोग अहमदाबाद या खंभात जानेवाठे थे, यहाँ निषृत्ति क्षेत्रों मापके समागममें विशेष लाभकी इच्छासे इस भोर चले आये । मुनि देव रणजी भी पीछे माते है इस पर श्रीमदूजोने कहा-- “आप लोग कल यहाँसे विहार कर जावें, देवकरणजीकों भी हम समा- चार भिजवा देते हैं वे भी अन्यत्र विह्वार कर जावेंगे । हम यहाँ गु्तरूपसे रहते हैं --किसीके परिचयमें आानेको इच्छा नहीं है ।* श्रो लल्छजी मुनिने नम्र-निवेदन किया--“आपको भआज्ञानुसार हम चढे जावेंगे परन्तु मोहन- छालजी और नरसीरख मुनियोंको आपके दर्रीन नहीं हुये हैं, आप आज्ञा करें तो एक दिन रुककर चले जावें ।* श्रीमदूजीने इसकी स्वोकृत। दी । दूसरे दिन मुनियोंने देखा कि जंगलमें भाम्रवृक्षके नीचे श्रोमदूजी प्राकृतभाषाको+गाथाभोंका तन्मय होकर उच्चारण कर रहे हैं । उनके पहुँचनेपर भी भाषा घण्टे तक वे गाथायें बोलते ही रहे और ध्यानस्थ हो गए । यह वातावरण देखकर मुनिगण स्रात्मविभोर हो उठे । थोड़ी देर बाद श्रीमदूजी ध्यानसे उठे और “विचारना' इतना कहकर चलते बने । मुनियोने विचारा कि लवुशंकादि निदृत्तिके लिए जाते हाँगे परन्तु वे तो निस्पृहरूपसे चढे हो गये । थोड़ो देर इधर-उधर ट्ूंढ़कर मुनिगण उपाश्रयमे भा गये । उसी दिन शामकों मुनि देवकरणजी भी वहाँ पहुँच गये । सभीको श्रोमदूजीने पहाड़के ऊपर स्थित दिगम्बर, श्वेतान्बर मन्दिरोके दरौन करनेकी आज्ञा दी । वीतराग-जिनप्रतिमाके दशीनोते मुनि्ोको परम उल्लास जाग्रत हुा । इसके पस्चात्‌ तीन दिन भौर भौ श्रोमद्जीके सत्समागमका ठाम उन्होने उठाया । जिसमें श्रीमदूजीने उन्हें ्रभ्यसंप्रह' भोर “आत्मानुशासन'---प्रन्थ पूरे पढ़कर स्वाध्यायके रूपमें सुनाये एवं अन्य भी कल्याणकारी बोघ दिया । # १. मा पुजझह मा रउजजह मा दुस्प्रह इठणिट्रअत्येद् । भिरमिच्छदह अह चित्त विचित्त्ाणप्पसिद्धीए ॥४८॥ र ज धिनि बि चितेतो णिरोहवित्तो इवे अदा साहू । लडूणय एयस तदाहु ते णिच्चमं उक्षाणं ॥५५॥ ३. मा चिट्टह मा जपह मा चितह कि वि जेग हो यिरो । अप्पा भष्यम्मि रथः इगमेष परं हवे उश्षाणे ॥५६॥ न्यस) श्रीमद्‌ जीने यह वृदद्दन्यसप्र्ट अन्य देडरके दि० जैन शास्त्र भण्डारमेंसे स्वयं निकलवाया था ।




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