समाजिक ज्ञान भाग -1 | Samajik Gyan (part-1)

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Samajik Gyan (part-1) by एस. सी. तेला - S. C. Tela

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७. परिणति को ही भारतीय संफ्रति कहा जा सकता है । भारत बहुत बड़ा. देश, है श्रौर उसका इतिहास म्रत्यन्त प्राचीन है । उपलब्ध इतिहास से कही भ्रथिक प्राचीन महत्व पूरणं यह का भ्नुपनव्व इतिहास है। कहा सही जा सकता किस काल से यहाँ भिन्नमिन्त जातिया यकर वसती रदी श्योर यहाँ को साधनाश्रों को. नये नये रूप देकर उन्नत करती रहीं 1 द्रविड़, शक, नाग, प्रामीर परादि जातिया श्राई मरौर सेकडो वर्षों के संघर्ष के उपरान्त इनका हिन्दू दृष्टिकोण बना । भषिकाश लोग भारतीय संस्कृति को केवल प्रायो की देन मानते आयें हैं, विस्तु यह वारणा सर्वेया उचित नही मानी जा सकती है ) भाज की हमारी संस्कृति मारतीय है । इसमें सन्देद नहीं कि मरार्यों को साघना यहाँ के सांस्कृतिक निर्माण में विशेष स्यान रती टै, दन्तु सका प्रथं यद्‌ नहीं करि उनमें पहले बसने वाली जातियों की देन इस दिशा में कुछ नहीं है । भाय, द्रविड, ईरानी, शक, कुपणं, हण, भ्ररव, तुक, पुगल, मंग्रेज आदि श्रतैक जातियों ने साह्कृतिक यंज्रमे. ऋपसी श्रपती आइति दी है । दमा काल बा प्रत्येक श्ाचार-विदार, विश्वास दथा प्रथा विभिन्न तो का फल है । भारतीय संस्कृति की विश्व को देनः-- मास्तीय संस्कृति भत्पन्त प्रादीन है ¦ चीन, मिध, पनात, भैसोपोरेपिया श्रादि प्राचीन सम्य देश के इतिटास से हमारा इदिहास कम प्राना बहो है। प्राचीन भारतीयों ने षौवनके समौ धोत्रो भे श्मपनौ प्रर प्रतिमा का. परिविय दिया था 1 धर्म, विज्ञान, साहित्य, कला,' राजनीति, गणित, ज्योतिप मादि कोई विपय ऐसा नहीं था जिसमें भारतीय विचारकों ने उस्व कोटि का चिन्तन ने किया हों। हमारे इतिहास की विरोपता यह है कि हमारी सस्कृति में एक निरंतर श्वविच्देध प्रवाद्‌ रहा दै । दूसरी प्राचीन संस्कृतियाँ नष्ट हो 'ुकी हैं किम्तु भाण के भारतीय जीवन का बैदिक भषवा मोदिडोदड़ो की सम्यरा से सं. था सम्बन्ध है । प्राश्यं की बात यह है कि, प्राचीत भारतीयों ने झपनी इस बढ़मुखों प्रगति का कोई प्रामाणिक इतिहास नहीं छोड़ा । 1“ । भारतीय संस्कृति की विशेषता उत्कका जगइगुरु होता है । उसने भारत कै वाह्‌ बड़े भाग की जगनी जातियों को साइवेरिया से सिंहल' तक भोर मेडागास्कर, ईरान तया अफगानिस्तान से भ्रशान्त मद्दासागर के दोनियों, डाली कै दीपो सक के डिशाल भूत पर सम्यता का पाउ पदाया । भारतवर्ष ने एशिया भ्ौर यूरोप के देशों को धपती धरमें- साधना की उत्तम चस्तु्ं दान दी, हैं। उसने भद्धिसा द मंडी का संदेश दिया है । हमारे पर्म-वि्ञान, गति भोर मन्दिर-शिल्प, हमारा दरन-यापव, हमारे बाम्य और नाटक, हमारी वचिरित्सा भोर ज्योतिप ससार में गये हैं, सम्मानित भोर, स्दीहत हुए हैं हर संवार की उच्च चिस्तनशील, जाठियों से थोड़ा बहुत प्रभावित भी हुए हैं । यहाँ के शिल्पी गोधार झोर यवन-दलारारों के साथ मित्कर पत्थर में जान शततेरदे 1 शस्व शर्‌ {णे के मनि के छाप मिलकर वे िकित्सा और उर्योतिए शिल्प भोर कसा में




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