जैन योग | Jain Yog Chatushtya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५) दता है उसा प्रबार याग टुखा वा विध्दस कर डालना = । याग मल्युकाभामगु है । नर्वात्‌ योगी कभो मरता नहीं । क्याकि याय आत्मा वा मात से यांजित करता है। मुक्त हां जान पर आत्मा का सता के तिए जम मरण से छरकारा हो जाता है । थयागरुपी बवच से जब चित्त न्वा र्ता ह ता दाम के तीरण जलस्तर जा तप को भी छिन्न मित्र कर डालत हैं. दुष्ठित हो जाते हैं-योगरुपी बदच से टवराकर व शक्शुय तथा निप्प्रभाव हा जात हैं । यागसिद्ध महापुस्पा न कहा * कि यदार्विधि सुने हा--जात्मसात विय हुए योग रूप दा असर सुनने वाल के पापा वा क्षय विध्वस कर डातत ^1 अशुद्ध-खारमिनित स्वेण अग्नि के यांग स-- आग मे गरठाने स जसे शुद्ध हो जाता है. उसी प्रकार अविद्या--नतान द्वारा सलिन--दूपित था कजुपित आत्मा यायर्पा अग्नि से पुद्ध हा जानी ह 11 भारदीय दशना म जन नशन तथा जनत्शून मे जनयाग मरा सयाधिय प्रिय विपय है । जनयायक म्भ मे मैन उन सभी प्रयो का पारायणविया> जा भून उपनघध हा सब । मँ ष्म सम्बध म आचाय हरिम म अ-यधिक प्रभावितह । उदान जाभी लिखा है बह मौलिक टै गहन अध्ययन चिन्तन पर जाधत है । पिष्टं क्छ यपो समर मनम यट्‌ भाव था कि आचाय हरिभट क इन चारों याग प्रथा पर मैं बाय करू । हिने जगत्‌ का अधुनातन शलौ म सुसम्पात्ति तथा अूटित रूप मे य प्रथ प्राप्त नहीं हैं । अच्छा हा इस कमी की पति हो सर । दमक निए सुझ उत्तम माग दशने तथा सयाजन चाहिए था । दिस सम यहे प्रस्ताव रषं यह गूभ नहीं पड रहा था । क्याकि आज अध्यात्म तथा याग के नाम पर जा काय चले रह हैं. वे ययाधमूलर बम तथा प्रशरित एव प्रचारमूलद नधिक हैं । उन तथाकथित याग प्रबतका मो. आचायों बा अपना-अपना नाम चाटदिए विभति चाहिए प्रचार चाहिए जा उनवं लिए प्रायंमिक है। खर जसी भी स्थिति है कौन बयां वर १ योग कत्पतर धरप्ठां यागश्चितामणित पर योग प्रधन धर्माणा योग मिद स्वयग्रह्‌ ॥ तथा च जमवाजाण्निजरस)ऽपि जरा परा। श्खाना रजयदमा य मूत्याम्‌ स्युन्टाहूत ॥ गुष्ठोभवणि ताशष्णानि म-मयास्राणि सदया 1 योगवमावून चित्त त्ेपरििःवराप्यपि।1 जरयमप्यततु शूयमोण वधाने ^ मीत पाव्रनयायोच्चर्योगिनिदमहान्ममि ॥ मतिनस्य यथा हेस्नों बह्े शुद्धिनियायत' योपासेचतसस्तरविया सलि पत्मन व ‹ योरि १६.४१ ~ र डे ही बम ही +




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