श्रीमद्भगवद्गीता सप्तम अध्याय | shreemadbhagvadgeeta saptam adhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शै ॥ है ॥ नीमडूगवद्रीता ११९५ धारयन्त्यतिष्च्छेख पायः भारान्‌ कथचन । प्रत्यागसनसन्देशेवदलब्यों में सदात्मिकाः ॥ ” (श्रीमेद्यगवत्‌ स्कन्घ्र १० अ० ४६ छो है; ४; ६ थथ-- सो गोपिकाएँ जो मन्भनस्क (सुकमें सन लगानेवाली 9 हैं तथा मखाणा: हैं ग्र्थात सेरेहीमें अपने प्राणको अप करने वाली अथवी मेरे दर्शनके लियेही प्राणको धारण कंरनेवाली हैं और केवल सेरी प्राप्तिके निभित्त अपने देहिकॉंको अर्थात भाता, पित, पति, पुत्र इयादिकों त्यांगकर केवल सुकमें प्राप्त हेरही हैं सो धन्य हैं। क्योकि जो पाणी मेरेलिये सेव लौकिक-धम्मं अर्थात्‌ पुत, स्त्री इत्या- दिसे भिलनेका सुख जो -लोकिक-धर्मातुसार विदित है त्यागदेते हैं उनको मे चपने भ्रमसे मर्देताहू । हे उद्वं | मेँ जो उन गोपि योंको उनके प्योरेसे भी अधिक प्यारा हूँ सो मैं दूर रहताहूँ । इंस कारण वे सब गोकुलनिंवासी स्त्रियां मेरा स्मरण करके सेरे विरहमें व्याकुलो विदलं हकर मोदित शेजाती हँ । शौर वे गोपिका जीं मेरी परम प्यारी हैं; मेरी उस बातकों जो मैंने चलते समय उनसे कही थी, कि मैं शीघ्र लौटकरे आओऊंगा इस मेरे लौट आनेकी शां पर अपने प्रांसोकी बडी कठिनतांसे धारण करती हैं । तात्पय्ये यंहं हैं, कि वे मैरे विरहे अवश्य प्रार्णोको खेोदेतीं पर मेरे लौट चानेक ` प्राशोपर केव॑लं जीरदी है ऐसी गोपिकाएँ धन्य हैं । भगवानके कह नेकां तीरस्य इस श्छोकम यही हे, कि व्रजगोपिका्ोके संमानं जो मुकमें मन आसक्त किये हे वही यथाथ सय्यालक्त मन; कदलाता दै ।




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