जाईंधर्मोमृत | Jaindharmomrit

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Jaindharmomrit by पंडित हीरालाल जैन - Pandit Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अन्थ ओर अन्थकार-परिचिय १य ७. अगृतचन्द्र ओर त्वाथसार एवं पुरुपार्थसिद्धवपाय तच्वार्थसार--दि० श्रौर श्वे ° सम्प्रदायमें समानरूपसे माने जानेवाञे तच्वाथंसू्को आधार बनाकर उसे पल्ख्वित करते हुए यद्यपि श्रा० अमृत- चन्द्रने लगभग ७५० श्लोकोमे इस अरन्थकी रचना की दै, तथापि अध्यार्योका वगोकरण उन्होंने स्वतन्त्र रूपसे किया है ! अर्थात्‌ तत्वाथसूत्रके समान तत्त्वार्थसारके १० अध्याय न रखकर केवल £ अध्याय रखे हैं, निसमेंसे पहला अध्याय सप्ततत्वोंकी पीठिका या उत्थानिकारूप है और अन्तिम अध्याय उपसद्दाररूप है । बीचके सात अध्यायोंमें क्रमशः सातों तत्त्वोंका बहुत ही सुन्दर, सुगम भौर सुस्पष्ट वर्णन किया है | नैनघर्मामृतके सातवें श्रध्यायसे लेकर तेरदवें अध्याय तकके सर्व-श्लोक इसी तत्तार्थसारसे लिये गये हैं पुरुपाथेसिद्धश्यपाय--मनुष्यका वास्तविक पुरुषाथ क्या है और उसकी सिद्धि किस उपायसे होती है, इस बातका बहुत ही तलस्पशी वणुन भा० भमृतचन्द्रने इस अन्थमें किया है । यह उनकी स्वतन्त्र कृति है और उसे उन्होने अपने महान्‌ पुरुषार्थके द्वारा अगाघ जेनागम-महदोदघिका मन्यन करके अमृत रूपसे जो कुछ प्राप्त किया, उसे इस अन्यम श्रपनी अत्यन्त मनोहारिणी, सरल, सुन्दर एव प्रसाद गुणवाली भाषामें सब्चित कर दिया है | हिंसा कया है और अहिंसा किसे कहते हैं इसका विविघ दृष्टि- कोणोंसे बहुत ही सजीव वर्णन इस अन्यमें किया गया है । इसमें श्रध्याय विभाग नहीं है । समग्र श्रन्थकी पद्य सख्या २२६ है । जेनघर्मास्ितके दूसरे और चौथे अध्यायमें ८७ श्लोक पुरुषार्थलिद्धघुपायसे सग्रहीत किये गये हैं । इन दोनों अन्थोंके अतिरिक्त आ० कुन्दकुन्दके श्रध्यात्म ग्रत्य समय- सार, पश्चास्तिकाय और प्रवचनसारपर भी श्रा अम्ृतचन्द्रने सस्कृत टीका रची है । समयसारकी टीकाके वीघ-बीचमें मूलगायथाके द्वारा उक्त




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