जाईंधर्मोमृत | Jaindharmomrit
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
363
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अन्थ ओर अन्थकार-परिचिय १य
७. अगृतचन्द्र ओर त्वाथसार एवं पुरुपार्थसिद्धवपाय
तच्वार्थसार--दि० श्रौर श्वे ° सम्प्रदायमें समानरूपसे माने जानेवाञे
तच्वाथंसू्को आधार बनाकर उसे पल्ख्वित करते हुए यद्यपि श्रा० अमृत-
चन्द्रने लगभग ७५० श्लोकोमे इस अरन्थकी रचना की दै, तथापि अध्यार्योका
वगोकरण उन्होंने स्वतन्त्र रूपसे किया है ! अर्थात् तत्वाथसूत्रके समान
तत्त्वार्थसारके १० अध्याय न रखकर केवल £ अध्याय रखे हैं, निसमेंसे
पहला अध्याय सप्ततत्वोंकी पीठिका या उत्थानिकारूप है और अन्तिम
अध्याय उपसद्दाररूप है । बीचके सात अध्यायोंमें क्रमशः सातों तत्त्वोंका
बहुत ही सुन्दर, सुगम भौर सुस्पष्ट वर्णन किया है | नैनघर्मामृतके सातवें
श्रध्यायसे लेकर तेरदवें अध्याय तकके सर्व-श्लोक इसी तत्तार्थसारसे
लिये गये हैं
पुरुपाथेसिद्धश्यपाय--मनुष्यका वास्तविक पुरुषाथ क्या है और
उसकी सिद्धि किस उपायसे होती है, इस बातका बहुत ही तलस्पशी वणुन
भा० भमृतचन्द्रने इस अन्थमें किया है । यह उनकी स्वतन्त्र कृति है और
उसे उन्होने अपने महान् पुरुषार्थके द्वारा अगाघ जेनागम-महदोदघिका
मन्यन करके अमृत रूपसे जो कुछ प्राप्त किया, उसे इस अन्यम श्रपनी
अत्यन्त मनोहारिणी, सरल, सुन्दर एव प्रसाद गुणवाली भाषामें सब्चित कर
दिया है | हिंसा कया है और अहिंसा किसे कहते हैं इसका विविघ दृष्टि-
कोणोंसे बहुत ही सजीव वर्णन इस अन्यमें किया गया है । इसमें श्रध्याय
विभाग नहीं है । समग्र श्रन्थकी पद्य सख्या २२६ है । जेनघर्मास्ितके
दूसरे और चौथे अध्यायमें ८७ श्लोक पुरुषार्थलिद्धघुपायसे सग्रहीत किये
गये हैं ।
इन दोनों अन्थोंके अतिरिक्त आ० कुन्दकुन्दके श्रध्यात्म ग्रत्य समय-
सार, पश्चास्तिकाय और प्रवचनसारपर भी श्रा अम्ृतचन्द्रने सस्कृत
टीका रची है । समयसारकी टीकाके वीघ-बीचमें मूलगायथाके द्वारा उक्त
User Reviews
No Reviews | Add Yours...