श्रीमद राजचंद्र (मूल गुजराती का हिंदी अनुवाद) | Shrimad Rajchandra (Mool Gujrati Ka Hindi Anuvad)
श्रेणी : दार्शनिक / Philosophical
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
61 MB
कुल पष्ठ :
1069
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ १५1
खाते, बैठते, सोते प्रत्येक क्रिया करते उनमे वैराग्य तो होता ही } किसी सम॑य इस जगतकर किकी
भी वैभवके प्रति उन्हे मोह हुआ हो ऐसा मैंने नदी देखा | ं
, यह वर्णन सयमीमे सभवित है । बाह्याडबरसे मनुष्य वीतराग. नहीं हो सकता । वोतरागता
आत्माकी प्रसादी है । अनेक जन्मोके भयत्नसे मिरु सकती है एेसा प्रत्येकं व्यक्ति अनुभव कर सकता हे ।
रागभावोको दूर करनेका प्रयत्न.करतेवाला जानता है कि रागरहित् होना कितना कठिन है.” यह रागरहित
दशा कविको, स्वाभाविक थी, ऐसा मुझ-पर प्रभाव पडा था । -
। .... मोक्षकी प्रथम सीढी वीतरागता है। जब तक जगतकी एक भी वस्तुमे मन धँसा हुआ है, तब तक
मोक्षकी वात कैसे रुचे ? अथवा रुचे तो केवल कानकों ही--अर्थात् जैसे हमे अं जाने-समझे बिना किसी
संगीतका केवल स्वर ही रुच जाये वैसे । ऐसे मात्र कर्णप्रिय आनन्दसे मोक्षाचुसारी वतंन भाते तो बहुत
काल बीत जायें । अन्तर्वै राग्यके बिना मोक्षकी लगन नही होती । ऐसी वेराग्यकी लगन .कविको थी । -
; इसके अरावा इनके जीवनमसे दो मुख्य बातें सीखने जैसी है--सत्य ओर अहिसा । स्वय जिसे
सच्चा मानते थे वही कहते हँ भौर तदनुसार ही भाचरण करते थे |
इनके जीवनमेसे ये चार बातें ग्रहण की जा सकती हैं--
(१).शादइवत वस्तुमे तन्मयता, (२) जीवनकी सरलता; समस्त ससारके साथ एक सी वृत्तिसे
व्यवहार; (३) सत्य और (४) अहिसामय जीवन ।”' 1
मात्र क्लेश ओर दु.खके, सागररूप. इस असार, ससारमे जन्म-जरा-म्रण, आधि-व्याधि-उपाधि
भादि त्रिविध तापमय दु खदावानलसे प्राय सभी जीव सदैव जल रहै है |, उससे बचनेवाले ज्ञान और
वेराग्यकी मूति-समान, परमशातिके धामरूप मात्र एक मापद्रष्टा तत्त्ववेत्ता स्वरूपनिष्ठ महापुरुष ही
भाग्यशाली है । उन्ही की शरण, उन्हीकी ,वाणीका अवलबन--यही त्रिलोकको त्रिविध तापाग्निसे बचानेके
लिये समथं उपकारक है. - य |
, दर {~ 1
“मायामय भग्निसे -चौदह राजूरोक प्रज्वलित है । उस मायामे जीवकी वृद्धि अनुरक्त हो रही है,
भौर इस कारणसे जोव भौ उस त्रिविध ताप-अगिनसे जला करता है, उसके लिये प्रम कारण्यमूतिका
उपदेश ही परम शीतर ज है, तथापि जीवको वारो घोरसे अपणं पुण्यके कारण उसक्ती प्राप्ति होना
दुलभ हो गया है ।”” --आक २३८
तत्वज्ञानकी गहरी , गुफाका दर्दान करने जायें तो वहाँ नेपथ्यमेसे ऐसी ध्वनि'हो निकलेगी कि
भाप कौन है ? कहाँसे आये हैं ? क्यो माये हैँ ? आपके पास यह् सव क्या है ? मापको अपनी प्रतीति है ?
भप विनाशी, अविनाशी अथवा कोई त्रिराशी है * ऐसे अनेक प्रदन उस ध्वनिसे हृदयमे प्रवेश करेगे ।
मोर इन प्ररनोसि जव आत्मा धिर गया तब फिर दूसरे विचारोके लिये बहुत ही थोडा अवकाश रहेगा |
यद्यपि इन विचारोसे ही अतमे सिद्धि हैं इन्हीं विचारोके मननसे अनतकालकी उलझन हूर होनेवाली
है बहुतसे मायं पुरुष इसके खयि विचार कर गये है, उन्होने इस पर अधिकाधिक मनन किया है ।
जिन्होने मात्माकौ शोध करके, उसके अपार मागंकी वहुतोको प्राप्ति करानेके लिये अनेक क्रम वि ह
वे महात्मा जयवान हो । मौर उन्हे त्रिकार नमस्कार हो 1 --आक ८३
यो एसे समथं ततत्वविज्ञानी स्वरूपनिष्ठं महापुरुषको अनुभेवयुक्त वाणीकां अवलम्बन कोई महा-
भाग्यके योगसे ही प्राप्त होने योग्य है ।
तत्वजिज्ञायुओकी ज्ञानपिपासाको परितृप्त करनेवाले और आत्मार्थियोंके हृदयमे भात्मज्योति
ज़गानेवाले ऐसे एक समर्थ तत्त्ववेत्ता श्रीमद् राजचन्द्रं इस कालमे हमारे महाभाग्यसे प्रगट हुए हैं ।
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