प्राकृत भाषाओं का व्याकरण | Prakrit Bhahsaon Ka Vyakaran

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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~~ शथ पैशाची से संबंधित 'वौदद विद्येष सूत्र मी है । ये चीदह विशेष सूत्र तो पैशाची मैं महाराष्ट्री से अधिक हैं और पैशाची की स्पष्ट विद्योपताएँ हैं तथा उन्हें बताने दिये गये हैं । इसी प्रकार ; अन्य प्राइत भाषाओं पर जो विदॉप सूत्र दिये गये हैं, उनकी दशा समिर |” --डल्वी निति कै ग्रथ, प्र० १,२ और ३ भुख्य प्राकृत के सिवा अन्य प्राकृत भाषाओं को निकाछ देने और प्राकृतप्रकाश कै भाम्-कौवेल-संस्करण मे पचन ओौर छठे परिच्छदो को मिटा देने का कारण भौर आधार वररुचि की टीकाएँ भौर विशेषतः बसतराज की प्राकृत संजीवनी है । > >८ > कोषे ने भामह की टीका का संपादन किया है । इसके अतिरिक्त इघर इस ग्रंथ की चार रीका और मिली हैं, जो सभी प्रकाशित कर दी गई हैं । चसंतराज,की प्रात संजीवनी का पता बहुत पइले-से लग चुका है । कपूंर- मंजरी के टीकाकार वमुदेव ने इसका उल्लेख किया है । मार्कण्डेय ने अपने प्राइततसर्वस्व में लिखा है कि उसने इसका उपयोग किया है । कौवेल और ऑफरेष्ट ने प्राकृत के सबंध में इसका भी अध्ययन किया है । पिशल ने तो यहाँ तक कहा है कि प्राकृत- संजीवनी कौवेल के भामह की टौकावाले संस्करण से कुछ ऐसा भ्रम पैदा होता है कि प्राक्त संजीवनी एक मौलिक और स्वतत्र अथ है । इस टीका की अंतिम पक्ति में लिखा है -'इति वसन्तराजविरतचिताया प्राकूतसजीवनीदृत्ती निपातविधिर्‌ अप्टमः परिच्छंदः समासः । रचयिता न प्राङत संजीवनी को इसर्मे त्तिः अर्थात्‌ टीका बताया है । पिशल ने अपने ग्रन्थ ( प्राकत भाषाओं का व्याकरण ४० ) में इस लेखक का परिचय दिया है | यदि इम पिद्दाह की विचारधारा स्वीकार करें तो प्राकृत-संजीवनी का काल चौदष्र्वी सदी का अंत-काल और पन्द्रदवीं का आरभ-काल माना जाना चाहिए । > > म यह टीका भामह-कौवेर-संस्करण की भूकों को झुद्ध करने के लिए बहुत अच्छी आर उपयुक्त है । कुछ उदाहरणों से ही मादूम पढ़ जाता है कि इससे कितना लाभ उराया जा सकता है ? इसमें अनेक उदाहरण हैं और वे पुराने लगते हैं। बहुसंख्यक कारिकाएँ उद्धृत की गई हैं। इनमें से कुछ स्वयं भामह ने उद्धत की हैं। इनसे पता छूगता है कि वररुचि की परंपरा में बड़ी जान थी | इसकी सहायता से वररुचि के पाठ में जो कमी है, वह पूरी की जा सकती है | यह बात '्यान,देने योग्य है कि बसंतराज ने बररुचि के सूत्रों की पुष्टि में अपना कोई वाक्य नहीं दिया है) कहीं-कहीं छीन-छूट, एक-दो न्द या वाक्य इव प्रकार फ मिछते हैं, ये भी बहुत साधारण ढंग के | वर्सतराज ने किसी प्राङृतन्याफरणकार $ माम




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