सुदर्शनचरितम | Sudarshanacharitam

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Sudarshanacharitam by डॉ हीरालाल जैन - Dr. Hiralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रद्काव्ध्वा |) । अनेक दाखाएं स्थापित हुईं जंसे कारंजा ब जेरहटमें षं» १५०० के कमभन, उत्तर भारत की कुछ झालाएं सं० १२६४ के लगभग, दिल्‍लो, जयपुर, ईडर व सुरत श्ञाखाएं सं० १४५०, नागोर व अंटेर सं० १५८०, भानपुरमें सं० १५३० के लगभग तथा लातुरमें सं० १७०० के लगभग शाखाएं स्थापित हुई । प्रस्तुत ग्रन्थमें बलात्कारगणके जिन आचार्योकां उल्लेख पाया जाता है वे उत्तर भारत तथा सुरतको शाखा में हुए पाये जाते हैं। उत्तरकी ज्ञाखामें प्रभा- चन्द्रका काल सं० १३१० से १३८५ तक और पदमनन्दिका सं० १३८५ से सं० १४५० तक प्रमाणित होता है । पद्मनन्दिके दिष्य देवेन्रकीरसिने सूरतकी क्षाखाका प्रारम्भ किया । उनका सबसे प्राचोन उल्लेख सं० १४९९ वैशाख कृष्ण ५ का उनके द्वारा स्थापित एक मूत्तिपर पाया गया हैं । उन्होंके पटु-दिष्य प्रस्तुत परन्थके कर्ता विद्यानन्दि हुए; जिनके सम-सामयिक उल्लेख उनके द्वारा प्रतिष्ठित करायी गयी मूर्तियों पर सं० १४९९ से सं० १५३७ तक पाये गये हैं ( मट्टा० सम्प्र० क्र० '४र७-४३३ ) । विद्यानन्दिके गृहस्थ जोवन सम्बन्धी कोई वृत्तान्त प्रत्थ-प्रशस्तियों या अन्य लेखोंमे नहीं पाया जाता । केवल एक पट्टावलो ( जे० सि० भास्कर १७ पृ० ५१ व भट्टा० सम्प्र० क्र० ४३९ ) में अछशाखा-प्राग्याटवंशावतंस तथा 'हरिराज- कुलोद्योतकर' कहा गया है जिससे ज्ञात होता हैं कि वे प्राग्वाट ( पौरवाड) जाति के थे, तथा उन के पिता का नाम हरिराज था । पौरवाड जाति में, अथवा उस के किसी एक वर्ग में आठ शाखों की मान्यता प्रचलित रही होगी, जेसा कि परवार जाति में भी पाया जाता है । प्राग्बाट जाति का प्रसार प्राचीन कालसे गुजरात प्रदेशमे पाया जाता है । इसो प्रदेश की प्राचीन राजधानी श्रीमाल (आधुनिक भीनमाल थी) जो आबूके प्रसिद्ध जैन मन्दिर बिमलवसहीके निर्माता प्राग्वाटबंधीय मंत्री विमलशाहुका पैत्रिक विदास स्थान था । इस प्राग्वाटबातिमें दिखानन्दिके गुरु भट्टारक देवेन्द्र कीतिका विद्षेष सान रहा पाया जाता है । उन्होंने पौरपाटान्वयको अष्टयाखाबाले एक श्रावक द्वारा संबत्‌ १९९३ में एक जिन मूरतिकी स्थापना कंरायो थी ( मटर सम्श० ४२५ ) संबत्‌ १६४५ में धर्मकोति वास अ्रतिष्ठापित मुरतिषर पौरष




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