श्री राधा का क्रमविकस - दर्शन और साहित्य में | Shri Radha Ka Kramavikas - Darshan Aur Sahity Men
श्रेणी : हिंदू - Hinduism
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
324
श्रेणी :
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No Information available about डॉ० शशिभूषण दास गुप्त - Dr. Shashibhushan Das Gupt
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ७ )।
पुजा का जितना उल्लेख प्राचीन इतिहास-पुराण-काव्य में मिलता है उससे
देवी के पहाड़ी वनप्रदेश के श्रायेतर निवासियों द्वारा पूजित होनं का सम-
थन काफी मिलता है। इन विषयों पर पहले ही . काफी लिखा जा चुका
है इसलिये मेन विस्तृत विवेचन नहीं किया ।
_ वास्तव में श्राज हम जिसे हिन्द धमं कहते हं वह एक जटिल भिधित
धर्म है, बहुत दिनों की' बहुतेरी धारणाओं ने भ्राज एकत्रित होकर उसके
वर्तमान बहु-विचित्र रूप को सम्भव किया है । देवी पूजा का उद्धव श्रौर
प्रचलन श्रा्य जाति की श्रपेक्षा श्रायेतर भारतीय श्रादिम' निवासियों में ही
होने की सम्भावना रहने पर भी इस बात को भ्राज स्वीकार करना होगा
कि इस देवी-पुजा का मूलतः श्रवलम्बन करके भारतीय शक्तिवाद नं जो
रूप धारण किया है उसके अन्दर उन्नत दाशंनिक श्र भ्राध्यात्मिक दृष्टि
सम्पन्न प्रायंमनीषियों की देन भी काफी है । श्रा्येतर जातियों नं विश्वास,
संस्कार, कल्पना, पूजा-प्रकरण प्रादि का तथ्य प्रदान किया है, श्रौर श्राय
दार्शनिक प्रतिभा नं निरन्तर उसमें उच्च दाशंनिक ततत्र श्रौर श्रध्यात्म-
ग्रनुभूति युक्त किया है । इसीलिये काली, तारा झ्रादि देवियों का द्महा-
विद्यारूप एक श्रोर शअ्रसंस्कृत भ्रादिम संस्कार का--शर दूसरी मनोर गहरे
श्राध्यात्मिक तत्त्व का प्रतीक-स्वरूप हमारे सामने दिखाई पड़ा है ।
यह जटिल सम्मिश्रण हमारे समाज श्रौर धर्म में सर्वेत्र विद्यमान है ।
ऋग्वेद का जो सूक्त परवर्ती काल में देवी-सुक्त के नाम से प्रसिद्ध
हुमा है, वास्तव में वह श्रम्भृण ऋषि की वाक् नामक ब्रह्मवादिनी कन्या
की उक्ति है । स्वरूपप्रतिष्ठा के फलस्वरूप उसने ब्रह्मतादात्म्य पाया था;
उस ब्रह्मतादातम्य-उपलन्धि के समय उसने प्ननुभव किया था, श्रह्य-स्वरूपा
में ही रद्रवसु, श्रादित्य ्रौर विश्वदेवगण के रूम मं विचरण करती हूं!
मित्र-वरुण, इन््र-प्रग्नि श्र श्रश्विनीकुमारद्य को में ही धारण करती
हूँ। यजमान के लिए में ही यज्ञफल रूपी धन धारण किया करती हूँ ।
में संसार की एकमात्र श्रधीरवरी हूँ, में धनदात्री हूँ; में ही यज्ञाज्ध का
श्रादि हूँ--ज्ञानरूपा हूं; बहु प्रकार से श्रवस्थिता, बहु प्रकार से प्रविष्टा
मुझे ही देवगण भजा करते हें। जीव जो श्रन्न खाता है, देखता है, प्राण
धारण करता है--ये सब मेरे द्वारा ही साधित हो रहे ह; इस रूप में
जो मुझे समझ नहीं सकता है वही क्षीणता को प्राप्त होता है । में खुद
ही यह सब जो कहती हूँ, देवता श्रौर मानवगण द्वारा वही सेवित होता
है; जिसको-जिसको में चाहती हूँ उसको-उसको में बड़ा बना देती क
उसे ब्रह्म, उसे ऋषि, उसे सुमेधा बनाती हं । ब्रह्मविद्ेषी हननयोप्य के
हनी के लिए में ही रुद्र के लिए धनुष पर ज्या श्रारोपण करती हूँ, जनता
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