फ़ानी बदायूनी | Phani Badayuni

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Phani Badayuni by मुग्नी तबस्सुम - Mugni Tabassum

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फानी बदायूनी कमरा रिहायश के लिए रखा और दूसरे में दफ़्तर खोल लिया | अब भी वकालत और शायरी की वही रफ़्तार बरकरार रही | कहा जाता है कि लखनऊ की तवायफ तक़कन जान से फानी का कुछ रागात्मक सम्बन्ध रहा | तक्कन जान फानी के यहाँ आया करती थी वह राजा साहब मेहमूदाबाद की कृपा-पात्र थी | राजा साहब उसे तीन सौ रुपये मासिक देते थे | तक़्कन जान का झुकाव फानी की ओर था| कभी नौकर न होता तो घर के छोटे-मोटे काम और पकवान भी कर दिया कर देती थी | तक़्कन जान चाहती थी कि फानी उससे निकाह कर ले | उसने एक लाख रुपये की पेशकश भीः की थी कि वे अपने कर्ली से छुटकारा पा लँ | फानी ने यह धनराशि लेना स्वीकार नहीं किया । कुछ दिनों बाद तक्कन जान की मृत्पु हौ गयी ओर इस प्रेम की दुःखद परिणति हुई । अब लखनऊ मे ठहरना फ़ानी के लिए दूभर हो गया था । वे बदायूँ चले आये | कर्ज का बोझ तीस-वत्तीस हजार तक पहुँच गया | कर्जदाता ने अदालत में नालिश करके डिग्री ले ली | फानी ने विवश. होकर पैतृक जायदाद बेच दी | कर्ज अदा करने के बाद जो धनराशि बची उसे खुलकर खर्च कर दिया और फिर नौबत फाके तक पहुँच गयी। इटावा को प्रस्थान, वकालत, नूरजहाँ से प्रेम मौलवी अल्ताफ्‌. हुसैन को इन हालात का पता चला तो उन्हें इटावा बुला लिया। वे मुहल्ला नौरंगाबाद में एक मकान किराये पर लेकर रहने लगे और दीवानी अदालत में प्रैक्टिस शुरू कर दी | वकालत के काम से उन्हें दिलचस्पी नहीं रही थी | लेकिन इसके बिना गुज़र-बसर की कोई सूरत भी न थी | वे मुकदमें की कोई खास तैयारी नहीं करते थे । मुहर्रिर, मुवक्किल से फीस तय करते | आमदनी उन्हीं के पास जमा रहती और खर्च भी वे ही चलाते थे । अक्सर यह होता कि पैसा खत्म हो जाता और फानी को कष्ट उठाना पड़ता | इटावा के मुंसिफ बाबू लछमन प्रसाद शे'रो-सुख़न में अच्छी रुचि रखते थे और फानी के प्रशंसक थे। वे अधिकांश अदालती कमीशन उन्हें देने लगे जिससे फानी की आर्थिक कठिनाइयाँ काफी हद तक दूर हुई | इसी जमाने मे यास यगाना चंगेजी इटावा आ गये थे ओर इस्लामिया हाई स्कूल मे नौकरी करने लगे थ| बेदम शाह पारसी इटावामें ही रहते थे | जिगर मुरादावादी मेनपुरी मे थे ओर इटावा आते रहते थे । अक्सर शेरो-सुखन की महफितं सजती रहतीं । साल में दो-एक बार बड़ पैमाने पर तरी मुशायरे आयोजित किये जाते जिनमे लखनऊ ओर दूसरी जगह के शायर भी हिस्सा लेते ओर कई शायर अपनी गजलें डाक से भिजवा देते थे । इन मुशायरो के लिए फानी ने अनेक ग़ज़लें कहीं जो *बाकियात-ए-फानी' में संगृहीत है ।




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