भारतेन्दु का नाट्य साहित्य | Bhartandu Ka Natya Sahity

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Bhartandu Ka Natya Sahity by डॉ॰ वीरेन्द्र कुमार शुक्ल -Dr. Veerendra Kumar Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ५ सब-साघारण नीति थी । वे भारतीय नागरिकों को यूरोपीय उन्मुत्त नागरिकों की भति नागरिक सुर्के श्रधिकार दिलाने में प्रयत्नशील रहे । यह आन्दोलन धार्मिक तथा नागरिक स्वतन्त्रता का ही श्रान्दोलन समभा जाना चाहिये । सन्‌ १८३३ ई० में ब्रह्म-समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय कौ मृष्यु के पश्चात्‌ समाज-सेवा तथा उक्त आन्दोलन का कायं-मार उनके पद-चिन्हों का श्रनुगमन करने वाले श्री रामनाथ ठाकुर, श्री प्रसन्नकुमार ठाकुर, श्री द्वारिकानाथ टैगोर तथा श्री देवेन्द्र टैगोर पर पड़ा | श्री केशवचन्द्र सेन उम्रवादी समाज-सुघारक के रूप में अवतीण हुये । १८६६ ई० मं भारतीय ब्रह्मसमाज की स्थापना की, जिनकी सेवाओं ने मारतीय- समाज को नवीन पथ प्रद्रशित किया | श्रव तक के समाज सुधारकों मं राष्ट्रीय चेतना तथा भारतीय स्वतन्त्रता की विचारधारा का उदय नहीं हुआ था | केवल सुधारवादी विचारों द्वारा देश और समाज का भला चाहते थे । पाश्चात्य सभ्यता.तथा श्रंग्रेजों के उदार शासन की प्रशंसा तथा उनकी क्त्र छाया में सांस्कृतिक तथा सामाजिक उत्थान की नीति प्रयोग में 'लाई जा रही थी | ब्रह्म-समाज श्रौर उसके प्रवतंकों के प्रभाव के कारण पाश्चात्य सम्यता एवं विदयाश्रों का भारतीय समाज पर उत्तरोत्तर प्रभाव बढ़ता गया । इतिहास, साहित्य, न्याय, दशंन, विज्ञान, कला, धमं श्रादिमें नवीन जीवन का संचार हुआ । वे नये आवरण धारण करके नयी दिशा में विकसित होने लगे । किन्तु परिवतन की गति बड़ी ही वेगवती थी, जिससे उसमें गुणौ की श्रपत्ता श्रवगुणो का ्नुकरण झधिकता से किया गया । पाकच्रात्य सम्पर्क का परिणाम स्वतन्त्रता प्राप्ति की प्रबल इच्छाका हीना समभा जाता है, अतएव लीग खान पान, विचार-विनिमय तथा काम करने की स्वतन्त्रता पर अधिकता से बल देने लगे । पादचात्य वमव की वद्तुश्रों श्रौर रहन-सहन की प्रथाश्रों मे परिवर्तन के कारण सामाजिक श्रनुशासन भंग करने का फैशन सा प्रचलित हो गया | ्रंग्रेजी ' शिष्टाचार से प्रभावित मद्यपान तथा नारी-स्वातंत्य की विचारधार ने जोर पकड़ा |} . शिक्षित वर्ग मे चरित्र-हीनता, धार्मिक विरोध, भौतिकवाद रहन-सहन का श्रथिकता ¦ से प्रचार हुआ । ऐसा प्रतीत होता था कि प्राचीन सभ्यता के स्तम्भस्वरूप धार्मिक ग्रन्थों और जीवन श्रादशों' की तिलांजलि देकर लोग पाश्चात्य सभ्यता को | अंगीकार करने लगे थे ॥ श्र भारतीय सस्कृति तथा सम्यता सबंदा के लिये . परित्यक्त होती दिखाई देती थी | ऐसी शवस्था में प्रतिक्रिया का होना स्वाभाविक . था । अधिक काल से हिन्दू सम्यता श्र संस्कृत को श्रपनाने तथा उसका पुनुरुत्थान ' करने वाला कोई महा-पुख्ष भारतीय रंगमंच पर न आया था, किन्तु कालान्तर मेँश्री बंकिम चन्द्र चटर्जी ने *बंग-दर्शन' में हिन्दू-घर्म श्र नीति की एक विवेचनात्मक लेख-माला निकाली । इसी समय उत्तरी भारत में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आयं




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