मिर्जा - बुकरात | Mirja-bukraat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कि श्राप कौनसी रहस्यमयी बात कह रहे हैं । भिरजा साहब ने विश्वास करते हुये कहा-- ुभ स्वयं विश्वास है कि तुम्हें ज्ञान नहीं । किन्तुं कमाल है वहं साहब- जादी तो बेताब दै । श्रत्लाह अकबर ! क्या मान था, क्या सौन्दर्य था, बड़ों-बड़ों को खातिर में न लाया जता था। अच्छे-अ्रच्छे इसी इच्छा में रहते थे कि एकबार मुस्करा कर देख ले किन्तु वह्‌ मानिनी किसी की श्रोर देखती न थी श्रौर भ्रब प्रकृति ने खुब बदला लिया है कि बहुत परिवर्तन दिखाई देता है । तीन दित से न बचाव स्थूगार न पानी ने दाना ! ”” हमने खीक कर कहा--'श्राप तो शायरी कर रहे हैं ॥ कम से कम यह तो बता दीजिये कि बह है कौन ? मिर्जा साहब ने भरांखों में आंखें डालकर कहा--“शाफ- ताब का जिक्र कर रहा है ।” हमने भ्राष्चर्यं से कहा-- “वही भ्राफताब जो उसं दिन पियाज्ञी रंग की साड़ी बधि बैठी थी शौर जिसने प्रकबाल तथा ग्रालिब की पंक्तियां सुनाई थीं । मिरजा साहब ने सिर हिलाते हुए कहा--हां वही जी कुछ सोई खोई बैठी थी । वह श्रपने को सचमुच खोकर गई है श्र भ्रपने सबसे पहले पत्र में लिखा है-- खुदा ऐसी गम गदतंगी से बचाएं तेरी विज्म में हम तुझे भूल आए ॥। हमने कहा--'बधाई हो मिरजा साहब ! जो श्रापको भूल गई है भौर अब पाना चाहती है ।” तिरं




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