जीवन के अमृतकण | Jivan Ke AmritKan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
172
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand): १५ :
आत्मा को दीप्त करने वाली अन्तहं ्टि-मनुप्य भौतिक
पदार्थों की खोज की दिशा मे बहुत अगे है उसने
भूमण्डल का कोना-कोना काकि लिया है चन्द्रमा की सैर
भी कर आया- समुद्रौ के अन्तस्तलो को उसने चीरकर
रख दिया. विश्व की सरवेश्रष्ठ पवतमाला हिमालय के
शिखर पर झण्डा फहरा दिया, परन्तु यह् कितनी
विडम्बना की बातहै कि वह स्वय को न जान पाया, न
पहचान पाया ओर उसने स्वय को जानने की कोशिश भी
कहाँ की * इसीलिए वह सुख की खोज मे दौड रहा है,
भाग रहा है, परन्तु वह् यह नही जानता कि वो अमृत-
कण' निज के मन मे ही है. विचित्रता ही विचित्रता है
तन, मन और वातावरण मे--घोर अन्धकार लिये मानव
आकाश की यात्रा कर रहा है वह दूसरे ग्रह पर दीपक
जला रहा है और उसके घर मे घोर अन्घकार है
भगवान सहावीर नें कहा था--“पहले स्वय को जानो,
दूसरो को समझने के पहले स्वय को समझ लो दूसरों से
कहने के पहले, उसके योग्य बनो ” महान् साधक गणेश
मुनिजी शास्त्री इसी ध्येयपथ के पथिक है उन्होने स्वय
को जाना है, कठिन तप ओर साधना की हैः इस अमृत-
कण मे उनके इन्ही मन की खोजो मे उपलन्ध मोतियो
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