जीवन के अमृतकण | Jivan Ke AmritKan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : जीवन के  अमृतकण  - Jivan Ke AmritKan

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about गणेशमुनिजी शास्त्री - Ganeshmuniji Shastri

Add Infomation AboutGaneshmuniji Shastri

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
: १५ : आत्मा को दीप्त करने वाली अन्तहं ्टि-मनुप्य भौतिक पदार्थों की खोज की दिशा मे बहुत अगे है उसने भूमण्डल का कोना-कोना काकि लिया है चन्द्रमा की सैर भी कर आया- समुद्रौ के अन्तस्तलो को उसने चीरकर रख दिया. विश्व की सरवेश्रष्ठ पवतमाला हिमालय के शिखर पर झण्डा फहरा दिया, परन्तु यह्‌ कितनी विडम्बना की बातहै कि वह स्वय को न जान पाया, न पहचान पाया ओर उसने स्वय को जानने की कोशिश भी कहाँ की * इसीलिए वह सुख की खोज मे दौड रहा है, भाग रहा है, परन्तु वह्‌ यह नही जानता कि वो अमृत- कण' निज के मन मे ही है. विचित्रता ही विचित्रता है तन, मन और वातावरण मे--घोर अन्धकार लिये मानव आकाश की यात्रा कर रहा है वह दूसरे ग्रह पर दीपक जला रहा है और उसके घर मे घोर अन्घकार है भगवान सहावीर नें कहा था--“पहले स्वय को जानो, दूसरो को समझने के पहले स्वय को समझ लो दूसरों से कहने के पहले, उसके योग्य बनो ” महान्‌ साधक गणेश मुनिजी शास्त्री इसी ध्येयपथ के पथिक है उन्होने स्वय को जाना है, कठिन तप ओर साधना की हैः इस अमृत- कण मे उनके इन्ही मन की खोजो मे उपलन्ध मोतियो




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now