जीवन के अमृतकण | Jivan Ke AmritKan

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Jivan Ke AmritKan by गणेशमुनिजी शास्त्री - Ganeshmuniji Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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: १५ : आत्मा को दीप्त करने वाली अन्तहं ्टि-मनुप्य भौतिक पदार्थों की खोज की दिशा मे बहुत अगे है उसने भूमण्डल का कोना-कोना काकि लिया है चन्द्रमा की सैर भी कर आया- समुद्रौ के अन्तस्तलो को उसने चीरकर रख दिया. विश्व की सरवेश्रष्ठ पवतमाला हिमालय के शिखर पर झण्डा फहरा दिया, परन्तु यह्‌ कितनी विडम्बना की बातहै कि वह स्वय को न जान पाया, न पहचान पाया ओर उसने स्वय को जानने की कोशिश भी कहाँ की * इसीलिए वह सुख की खोज मे दौड रहा है, भाग रहा है, परन्तु वह्‌ यह नही जानता कि वो अमृत- कण' निज के मन मे ही है. विचित्रता ही विचित्रता है तन, मन और वातावरण मे--घोर अन्धकार लिये मानव आकाश की यात्रा कर रहा है वह दूसरे ग्रह पर दीपक जला रहा है और उसके घर मे घोर अन्घकार है भगवान सहावीर नें कहा था--“पहले स्वय को जानो, दूसरो को समझने के पहले स्वय को समझ लो दूसरों से कहने के पहले, उसके योग्य बनो ” महान्‌ साधक गणेश मुनिजी शास्त्री इसी ध्येयपथ के पथिक है उन्होने स्वय को जाना है, कठिन तप ओर साधना की हैः इस अमृत- कण मे उनके इन्ही मन की खोजो मे उपलन्ध मोतियो




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