योगानुशीलन भाग 1, 2 | Yoganushilan Bhag - I, Ii

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Yoganushilan Bhag - I, Ii by कैलाशचन्द बढ़दार -Kailashchand Badhadaar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्रन्थ-प्रस्तुति योग विद्या इस भारत धराकी ही उक्करष्ट ्रौर श्रति प्राचीन काल से झाई विद्या है । परम तत्व पारगामी मनीषी श्रहतपुरुषो एव तीर्थकरो ने जिज्ञासा श्रौर विचारणा तक ही न रह कर ग्रन्तरात्म- क्षितिजो के पार स्वय श्रानन्द मूर्ति ज्ञान धन रूपमे ही श्रपते को विकसित भी किया था । योग विज्ञान का उत्स प्राणी-जीवन के परिष्कार को, निमंल सत्य श्रानन्द स्वरूप को लक्ष्य करके तथा उसको ही समर्पितं होकर इस भारत धरा पर उन्होने किया । विश्व के श्रखिल धर्मों का एक ही स्रोत रहा है। सदुधमं वही है जो मानव को ढु ख सुक्त करके निर्मल श्रानन्द स्वरुप में धृत रक्‍्खे । मूल सद्घमं के ही मुल श्राघार तत्वों को लेकर विभिन्न सप्रदाय परिपुष्ट हुए है। विभिन्न दर्शन-भूमियों पर से ही नानात्व हष्टिगोचर होता है । निर्मल श्रात्म स्वरूप की ्नन्तदृष्टि पर तो प्राणी मात्र समान रूप से चेतन तत्व ही दीख पडता है । जब परम शिव प्रभु हिरण्यगर्भ वृषभेश्वर ने इस विश्व को इस युग के श्रआारम्भ मे स्वप्रथम योगशासन दिया तब मानव जाति नाना मतो तथा सप्रदायो मे विभक्तनथी। उस योग मय धर्मं-प्रवर्तन मे एक ही सदुघमं की दृष्टि थी, एक ही निर्मल श्रात्म ज्ञान की अवधारणा थी । यह समूची मानव जाति के लिए थी । इसकी सीमाए किसी एक प्रदेश या कालखण्ड के लिये नहीं थी । यह शाश्वत्‌ धमं श्रवतारणा थी । सर्वे योगी-जन, श्रागम, मनीषी पुरुष तथा प्राचीन सप्रदाय एक स्वर से हिरण्य गर्भ प्रमु को ही श्रादि पूर्ण पुरुप तथा योग के प्रवक्ता स्वीकार करते है। सवंज्ञ जन परम्परा उन्हे हिरण्यगर्भं कह्ने के श्रतिरिक्त प्रथम तीर्थकर आदीश्वर झादि भी कहती है । वेद रचना से पूर्व योग विद्या उस योग शासन मे परिपक्व हो चुकी थी, यह एक सवेमान्य तथ्य है । सम्पूर्ण जीवन की विशिष्ट पद्धति रूप यह योग सारे विश्व मे प्राचीनतम ही विद्या है । इसके प्राखदायी तत्त्वो को श्रपनी श्रपनी घारणा तथा दर्शन मान्यता श्नतुसार सब्र ग्रहण किया गया है । एक समान सूत्र की तरह यह योग सर्वे धर्म-सप्रदायों की एक मुलता को भी प्रकट करता है । यह योग वेद पूवे प्रागतिहासिक काल से जुड़ा है । इसमे श्रात्मा की मौलिक निर्मलता तथा शझ्रनेकात दृष्टि श्रादि वे तत्व है जो मानव के सदु्रूपातरण के लिये मुल भूत है, तथा राष्ट्रीय एकीकरण, सर्व घ्म समादर के लिए, मानसिक उत्कान्ति के लिए भी झ्राघार भुवत है । वेदो कौ तुलना मे उपनिषद्‌, जन श्रागम तथा बौद्ध त्रिपिटक भ्रादि भ्र्वाचीन समभे जाते है। परत्तु यह निर्ित है किश्रर्वाचीन समभे जाने वले श्रागम साहित्यमे भ्राघ्यारिमिक चिंतन धारा जो




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