साहित्य, साधना और समाज | Sahitya Sadhana Aur Samaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( < ) - “ साधू भयातो क्या चया माता प्री चार), वाहूर मेस वनाप्या भीतर नरौ नेगार॥ सो प्रकार श्राटम्बर्‌ कभी उन्होंने तीर विरोध किया मूड मृदये हरि मिल सच कोई सेय मृडाय । यार बार के मू इ़ते भेड न वुठ जाय ॥ साई से साच रहो, सट साच रहाय । मायं लेन के रप, नाव घुरड़ि मुदाय ॥। णारर्विः कष्ट प्रर सपनतय भी वकार र यरि उनने मन प्ररि्डत नही होता । घरीर की साधना, बिना सन को वध में व हो सफतो 1 लोग व्रत-उपवान करते ह, पर पौध, लोग, प्यान्द्रप प्रादि के भाव दूर नहीं होते तो ऐसे न्तो से कोई लाभ नहीं । कायीर में लिखा दें कि यह सांप को ने सार कर उसकी चाबी पीटना है, £-- वाचा सूट ववर, सपन मारा उव | मरप वाव ना उरते, सपि सवन फो वाय ॥। नानक ने भी श्रास्तरिक शुद्धि के व्रिना, वरन, नियम, तौव न्रादि को व्यर्थ बताया हई - वरत्‌ नेम तोर्थ अमे, चद्टुतरा वोचति फूड । श्रतरि तोरथु नानषठा, सोधन नाही मृड ॥ धमं ्रौरस्माजदोने मे भेदभाव टालनेवाली त्वा श्रय श्रीर्‌ दिखा की बातो का सत्त कवियों ने तीन्र विरोध किया हैं । थे माला लेकर उस जाप का विरोध करते हू, जिसमें कि मन इधर-उधर फिरता है म्रौर उस नमाज की भी निन्दा करते हूं जो हृदय के कपट-भाव शरीर जीवर्नहिसा श्रीर हत्या को टूर 1 कर सकती हैं । ईश्वर को मन्दिर, मस्जिद या मूर्ति में ही केन्द्रित क केवल वही जाने पर धर्म-भाव को मन में लाना श्रीर श्रन्य स्थानों पर झत्या- चार श्रौर पाप करना, सत्य-व्यवहार से टूर है । यथार्थ में ये धर्माउम्वर हमें भूठा मार्ग बताते है । दाढू से कहा दे -- । यह्‌ मसीत, यह देहरा, सतगुर दिया दिखावर । भीतर सेवा वन्दी, बाहुरि काहे जार 11 प्रत. प्रान्तरिक चेतना श्रीर विकास का ही महत्व इन सत कवियोकी दृष्टि में है। इसी प्रकार वे हिन्दू-मुसलमान, न्राह्मण-थूद्र आदि का भेद भी बनावटी मानते है गौर यह श्राइम्बर की पराकाष्ठा हैं । जब तक दारीर में प्राण है




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