ये और वे | Ye Aur Ve

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Ye Aur Ve by जनेन्द्रकुमार - Janendrakumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गौर मदग थाम चार पाच युवका का समूह घूम मचाता सा उनकी ओर आता झौर बाता नहीं क्पपीछ फिर जाता । जाते क्या नथा था. आज भी मैं उसको समझ नहीं सकता हु । मैं सिल की तरह वही बघा खड़ा रह गया । बाज भी बह दुष्य भूलता नही है । बारह के वा कर एक हो गया लो भी हो गया पता हीन चला। देखा कि सामने की ठोनी विश्वाम के लिए तनिक विसरी है। मवागनाएं पात से टूटवर हँसी ठठोली करती एव दुक हो गइ । तब सरदी का पता श्वना 1 पता चला कि ऋतु शीत है। कपड़ा कम है । चाँद ढला चाहता है। तीन के ऊपर समय हो रहा होगा । इस चेत म चल तो दिया लेविंन विभोरता सहसा दूदती न थी और जगह पर आकर लेटने पर भी नीद से पहले नौर नींद के सपनों मे उन तरुणियां का नत्य रह रहकर दीखता रहा । रवी द्रनाथ की भग्यता और स याला की अनगरता मे साददय चाह न हो पर दोना स्मृतियाँ साय अक्ति हुइ और साथ ही रहती भाई है भौर मैं तो हढान मान लेना हूँ कि उनम विपमता नही है। टोना म ही प्रडडति की अकुरित स्वीकारता है. शौर उस महामाया की भाव भगिमा के साथ लयलीनता 1 -इस भेंट क॑ समय तक श्ापने लिखना तो चायद प्रारम्भ हो कर दिया था ? -हां उस सन ३० मे ही मरी पहली पुस्तव परख निकनी थी मीर रविठाकुर स मिलकर लौटही रहे ये कि रास्त मे वनारमीनास जी न नखबार खोना गौर बताया हि रसे एवं डमी-पुरस्वार मिला है। मेरे लिए यह अनोखी व थी क्यानि मैं बहुद अनाडी था । तीय लाभ के प्रमग का ही यह अभिन तने हो गया। -एरविठाकुर से झापकों यह अत्तिम मुलाकात थी था इसके बाद भी उनसे मिलने का श्रवसर श्ाषा ? जायवाद मे भी मिलना हुआ मुझे यार है तब गरमी के दिन थे । मु नाकात करीब ढाई बजे हुइ । हम लाग साथ श्री हजारीप्रमाद द्विवेरी थे गायट सिर पर तौनिया डान गए । कवि वरामदे मे बठे थे । वाहर सरकण्डा का परदा पडा था । सामने खुली बडी मेज थी। वह बेड सूले पर थे जिसम पीठ न थी । सीघे मानों ध्यानस्य एकाय्र सामने वागज फँला चिश्रकारी कर रह थे । दूर से दखने पर जो राजसी विलास का मण्डल कवि के चारो ओर मालूम होता था पास से जान पटा वि उसका रहस्य क्या है। मालूम हो गया कि कीर्मि सस्ती वस्तु नहा है। महू रवीद्रनाय ठाकुर / ७




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