कथा वीथी | Kathavithi

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Kathavithi by राज्श्वर गुरु - raajswar guroo

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बरिपास्वं । १ करके मनुष्य की नर्सगिक प्रवृत्ति पर अपना कोई विधान मारोपित से कीजिए 1 एक बड़े युग तर हिन्दी कहानी में जीवन के नैतिक पक्ष, उज्ज्वल चरित्र बौर आदर्शोस्मुखी प्रबुत्तियी की ही छाप रही है । पर, आधुनिक हिन्दी कहानों में शिहण ही नहीं, नैतिक मान्यताओं के संरक्षण सम्बन्धी पलिवस्ध भी टूट गए हैं १ जेंनेर्द्र जी का कथन है कि “कहानी मूल रूप मे शिल्प नहीं संवेदन आर संवेद्य है ।” स्वयं प्रेमचत्द्र जी ने अपने प्रीढ़ 'रचना-काल में कहां था, “वतेंमान आख्यायिका मनोवेशानिक विश्ले- षण भौर जवनः के यथाथं भौर स्वाभाविक चित्रण को अपनों ध्येय समझती है । उसमें कल्पना की भाषा कम, अनुभूति की माक्रा अधिक होती इतना ही नहीं है। बल्कि, झनुमूतियाँ ही रचनाशील भावना से अनुरंजित होकर कहानी बन जाती हैं ।” एक युण था, जब हम सम्पूर्ण कला को जीवन के हेतु मांगलिक और कल्याणकारी रूप में देखने के अम्यस्त थे । यह्‌ युगव्यापी समाजिक और राजनतिक परिवर्तनों का ही प्रभाव है कि स्वयं प्रेमचंद जी आदर स्था- पन भर सैतिक मान्यताओं के संरक्षण के स्यान पर जीवन के रदाभा- बिक भौर ययाय स्वरूप को कहानी का मुख्य उद्देश्य मानने लगे । उनको कल्पना के स्पान भर अनुभूति की सत्ता को अपेक्षाइत अधिक महत्व देना पढ़ा । फिर आगे चलकर रूप-विधान में भी उत्काति का उदभव हुआ । उन्दने एक हयल पर कहां, “अब हम कहानी का मूस्य उसके घटना. विन्यास में नहीं देखते, हम चाहते हैं कि पात्रों की मनोगति श्वयं घट- सामो करी सृष्टि फरे 1” भावायं प्रवर पं० हजारोप्रवाद द्विवेदी यद्‌ स्वी. काएकरते हे कि, प्रचीन संस्कारो कीरूद्के प्रति विद्रोह मोर्‌ यपां की चेतना के अनुरूप नदीन संस्कारों के बीजारोपण का प्रयास इस युष कथा-वीमी




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