ऋग्वेद षट्कम संहितोपनिपच्छतकम | Rigved Shatkam Rigvedsanhitopnisachhatkam

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Rigved Shatkam Rigvedsanhitopnisachhatkam by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ ख्ावि्या प्रतीत्यमावादर्दमचप्यादिग्रत्ययो मिथ्यात्मदेहादिविषय इति षिद्धम्‌। देदादेरनास्स्तं मिथ्यात्सत्वं ध्रख्यात्मृथक्त्वश्च अपाद्‌ प्राडेति' मव्रव्यास्याने- ऽसाभिः प्रपन्ितम्‌, तमरैयायमन्तव्यम्‌ । तसात प्र्यक्षेण प्रमाणेन ब्रह्मासि राम 1 नाप्यनुमानेन तष्टाभः संभवति, हेतुइटान्तयोरभावात्‌ ! 'निर्विकटपमनर्न्त च देतुएान्तवर्जितेम्‌ ! इत्युपनिपछते! । निरधकत्वाच तत्र देतु; संभवति, अद्दितीयलाच न च्णन्तः। ` । नद-श्रोतव्यो मन्तन्पः (वरू, २।४।५) इत्यादिशरुल्या यु्यसुसन्धानः रूपमननोपठकितादुमानखाभ्युपेतत्वात्‌ कथं ततमहिपिष्यते १ इति । मैप दोपः । ब्रह्मात्मनि वेदोपतिषदराक्यान्येव प्रमाणम्‌ । अुमानन्तु पुरुपापराधनिरासद्रारा तदुद्धिखारस्थ्याय प्रवर्तते 1 अव एव तदारोषितौ देतुद्णन्ताघुपजीव्य सामान्यतः तं साधयदपि सलक्तानानन्ताद्वितीयत्वादिलक्षणं विशेषं न साधयितु शक्रोति । एवं तत्सद्यादेरन्यखाभायात्‌, नाप्युषमानदेः प्रमाणान्तरखापि विषयः । नघु-बहसिद्धिकासः शिशाः-^र्वभ्रययपेवे च अहास्पे न्यबयितेः शयनेन वियमान शीभेद-पषक्व की अबिया से प्रतीति न होने से 'ैं मनुष्य हूँ, ब्राह्मण हूँ” इत्यादि प्रतीतिं मिध्या-आत्मा देहादि-विपयणी है, ऐसा सिद्ध हुआ । देहादि में अनात्मत्व है, मिथ्यात्मत्व दै, एवं मुख्यात्मा से प्रपक् है, ऐसा “अपाइप्राडेति' ११ के मन्र के ब्यात्यान में विस्तार से हमने प्रतिपादन किया है, चहाँ ही से जानना चाहिए । इसलिए प्रत्यक्षअमाण से ब्रझ्न-आता के अंदेत का छाम- अनुभव नहीं होता है। अनुमान-प्रमाण से भी उसके छम का सम्भव नहीं है। क्योकरि-हेत एवं इटान्त का अभाव है । “वह आत्मा निर्षिकल्प, अनन्त, एवं हेतु-लिल्न एवं इान्त-उदाहरण से रहित हे # ऐसी-उपनिपत्‌ की श्रुति से भी यही सिद्ध होता है। आत्मा धर्मरहित-निपर्मक है, इसलिए उसमें हेतु का सम्भव नहीं है, अद्वितीय होने से दन्त का सम्भव नहीं है | इौका-'उस-आत्मा का श्रवण करना चाहिए, मनन करना चाहिए ।” इत्यादि श्रुति के द्वारा युक्तियों के अनुसंधानखूप-मनन से उपठक्षित-अनुमान का खीफार होने से उसका क्यों अतिपेध करते हो ? कि-आत्मा अनुमान प्रमाण का भी विपय नहीं है | समाधान-यह दोप नहीं रै क्योकि-त्रह्म-भातमा मे वेदोपनिषत्‌ के वाक्य ही प्रमाण हैं । अनुमान-तो पुरुप के संदाय विपरय॑यादि-अपरार्धों के निरास द्वारा उसकी बुद्धि के खास्य्य-जो संराय-विपर्मय रहित-शान्ति-पवित्रतारूप है-उसके लिए प्रवर्तमान होता है। इसलिए वह-उसमें आरोपित-हेतु-एवं दृान्‍्त का उपजीवन करके सामान्यरूप से उस आत्मा को सिद्ध यरता हुआ भी-सत्य-ज्ञान-अनन्त-अद्वितीयत्वादिरूप विशेष को सिद्ध काने के लिए समर्थ नहीं शोता है | इस प्रकार उसके सदर आदि-अन्य्‌ का अमाव होने से उपमान आदि अन्य प्रमाण का भी बह भाता विपय नहीं ई । र दौका-ह्मसिदधिकार कविट-आाचार््-चद ब्रहरूप स्प्रसक्लादिमरवयेों से बेच है; ऐसा




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