समयसार टीका | Samayasar Tika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
361
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कन्य ण भ म धर जन्शर शा आशा सना,
८ - द समर
गाथा --वचद्दारेजवदिस्सदि णाणिस्स चरिचर्दस्णं णा्णं ।
णवि णाण ण चरित्तं ण दखण जाणगो सुष्टोः ॥ ७॥
संस्कृता --न्यवदरिणोपदिश्यते सानिनश्ारितर दर्शन जान ।
नापि शान न चार ने दर्शन नायक शद्ध ॥७॥
सामान्या्थ--इस ज्ञानी जीमके दरीन ज्ञान चारिनर व्यवहारनयकी अपेसासे कहे जाते
है, निश्चयनयस न इसके ज्ञान हे, न चासि हे; न दीन हे, परन्तु श स्नाय स्वरूप हे ।
शद्दार्थ सहित विशिषार्थ --(वरहारेण) सदभृत व्ययहारनय करके ( णाणिस्स ) इस
ज्ञानी नीये (चरित्तिमण णाण) सम्यग्डोन, सम्थग्त्तान ओर मम्यग्वारिय (उवदिन्दि) कटे
जति ह, परन्तु युद्ध निश्चयनय करके (गविणाण ण चस्ति ण दमण) न तो ज्ञान है, न चारिय
दहै, न दीन हे । तो पिरि यह आत्मा केमा है ° (नाणगो ज्ञाय शुद्ध चेतन्य स्वभाव है तया
(द्धो) शद्ध ही दे-रागद्रेपादि करके रहित हे 1 यहा य प्रयोजन है कि जेते निश्चयनय करके
अमद् स्वरूप होनिसे जनि एक रूप ही हे । पीछे भेद रूप व्यवहारनय बरके यह बहनेमे
आता है कि जो दृहन करती अर्यात् नलती हे पो गदर है, जो पाती है पतो पाच्कदै,
जो प्रकाश करती है सो प्रबाशक है । इस व्युत्प्तिकी अपक्षासे-विपय भेदके तीन प्रकार भेद
अभ्निफे विये जति है । वास्तवमे वही अमि दाहक, पाचकं तया प्राक स्वख्प हे तैसे ही
यड् जीव भीं निश्चय स्वरूप जो आेद नय उमकी अपेशास शुद्ध चैतन्य स्वरूप ही हे, ऐसा
होने पर भी भेद रूप व्यवहारनय करक यह कहमेंम आता हे-जो जानता है सो ज्ञान है; जो
देखता है थ श्रद्धान करता है सो दुरीन हं, नो आचरण करता हे मो चारिम है। इस व्युत्पत्ति-
के कारण विषयक मेटसे तीन प्रकार भेद स्यि नाते है । परमार्यसे तो दुशन ज्ञान घारित्र
स्वरूप आत्मा ही हे | भावा्--ठेमा आत्मा नो झुद्धनिश्चयसे अभेद स्वरूप ओर सदूमूत
व्यगहारसे मेठ स्वरूप है सो ही ध्यान करने योग्य उपादिय है । आगे कहते है कि यदि शुद्ध
निश्चयनय करके इस नीवक ददन, 'ज्ञान, चारिन्र नहीं हे तो एक इसी परमार्य स्वरूपयों ही
कहना योग्य है ।
व्यवद्दार स्वरूप कदनेकी कोइ जायइ्वक्ता नददीं है ऐसा डाका किये जानेपर आचार्य कइते डा
गाया --जहद णवि सक्कमणज्ञो । अणल्लमासं विणा हु गाहेदुं ।
तह वयहारेण विणा ॥ परमत्युवदेसणममश्षं ॥ ८ ॥
सस्छताथ -यथधा न राक्योऽनाय्यो ! ना्यमाधा विना तु घादायव ।
तथा यवहारेण विना । पस्मायोपदेदानमद्यक्य ॥ ८ ॥
भापान्यार्भं --जमे म्लेच्छ म्न्च्छ भाषा जिना सिमी यानम समझनेकों असमये
दै चेमे यवदारफ चिना व्यवहारी जीरवोगो परमार उषठेङ होना ज्ये ।
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