विरोधपरिहार | Virodh Parihar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(६ ) तीर्थंकर का शासन चालू है उनके समय में दिंसा का आवल्य था और वह भी पशुध्रों के सम्बन्थ मे । उस समय यज्ञयाद्‌ का जमाना था; धर्म के किये यत्त में पुमो की श्राहुतियां दी जाती थीं । भारत के एक मद्दाकवि ने इन्दी यतो का वणन करते हुए लिसा है # कि इनमें से इतना खून निकलता था कि उसके रङ्गः , से चम्बल नदौ फा पानी भी रंग जाया करता था । यदि मद्दाकवि के इस धर्णन को 'झतिशयोक्तिपूण भी मान जिया .जाय तव भी- इतना तो निश्चित दै कि उस समय यत्नो का प्राबल्य था तथा इनमें धर्म के नाम पर घोर द्विसा दोती थी । मद्यवीर स्वामी के उपदेश. में हिसा की प्रवलता थी 'और वद इसमें सफल भी इए } उनके उपदेश द्वारा भारत से इस दिंसामई यज्ञवाद की विदाई हुई 1. भगवान्‌ मद्दावीर के सन्देश में दविसा के त्याग के साथ दी साथ पश्यं की रक्ता पर विरोप जोर था । इसका यह लात्पय नहीं” कि उनकी हिंसा पशुष्मों दी तक सीमित थी चिन्तु उस समय पशु-हिंसा का 'झधिक प्रचार था 'अत्त: इस दी के रोकने की झावश्यकंता भी थी । यदि पशुछों के स्थान पर उस समय भयुप्यो की हिंसा का भ्रावल्य होता तो भगवान्‌ के उपदेरा से भी दिंसा के त्याग में मनुष्यों का विशेष उल्लेख होता । इससे स्पष्ट है कि जैनधर्म का अहिंसा का सिद्धान्त तो बहुत व्यापक है | मनुष्य छोर पशुष्यों की तो वात दी क्‍या है इससे तो अपने परि- णामो तक की रष्ठा का विधान द किन्तु इसको पशो की दिका का दी सुख्यतः सामना करना पड़ा था अवः यद्द उस ही के- # मेघदूत ४५ (पव ) टीका 1




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