हाथ की उँगलियाँ | Hath Ki Ungliyan

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Hath Ki Ungliyan by सुरेशचन्द्र श्रीवास्तव - Suresh Chandra Srivastava

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्यारह माना कि पजे सहला नहीं फाते किसी हिलती-डुलती नरम-नरम देह को पर कितनी अजीब बात है कि किसी नरम-नरम देह के गरम-गरम खून से कितनी आसानी से सान लेते हैं अपने नाखून वे बारह उँगलियाँ जब बहाती हैं पसीना खाती हैं मौसम की मार तब कही उगा पाती हैं फसल पर लहलहाती इन फसलों को महज 'घास-पात ही खर-पतवार ही क्यों समझते हैं खुर ? आखिर क्यो ? हाथ की 'सँगलियाँ 15 तेरह खुर मचलते नही सुरो पर, चहकते नहीं लयो पर, थिरकते नहीं तालो पर पर दिखा नहीं चारा कि मचलने लगते हैं वे 'चहकने लगते हैं दे थिरकने.: लगते हैं वे कभी-कभी इस सीमा तक कि तुडा लेते हैं पंगहा




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