समय - सार | Samay - Sar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
40 MB
कुल पष्ठ :
847
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)न ~+ ५ ञ्य
हैट जीव पुद्गलकर्मंको भोगता है यह भी व्यवहारनयसे कहा जाता है । परमा्थेसे जीव न तो पुद्गल कर्मको करता
हैश्रौरन पुद््गलकमंको भोगता है; क्योकि यदि जीव पुद्गल कर्म॑को भी करे व भोगे तो एकतो जीवने अपने
परिणामको किया व भोगा भौर दूसरे पुद्गल कर्मकोभीक्रिया व भोगा तो इस तरह जीव दो द्रव्योकी क्रियाका
कर्ता बन जायेगा 1 एसा होनेपर चूकि क्रियाका उस्न कालमें तादात्म्य रहता है, इस कारण जीवव अजीवमें
भेद नहीं रहा अथवा जीव अजीवमें से एकका अथवादोनोंका अभाव हो जायेगा इत्यादि अनेक अनिष्टापत्तियाँ हो
जायेंगी । एक दृव्य दो. द्रव्योंकी क्रियाका कर्ता है, ऐसा श्रनुभव करने वाला जीव सम्यग्दष्टि नहीं, किन्तु मिथ्या-
दृष्टि है । अर्थात् वस्तुस्वरूपसे विपरीत रृष्टिवाला है। कम उपाधिके निमित्तसे होने वाले क्रोधादिक औपाधिक
भाव हैं, उनका भी जीव सहज भावसे याने उपाधिकों निमित्त पाये विना कर्ता नहीं है । इन क्रोघादिक परभावोंका
कर्तानतो जीवहै मौर न कमं; किन्तु कर्मके निमित्तसे जीवके उपादानं कोधादिक परिणमन होता है। जीव निज,
सहज, चैतन्य स्वरूप व क्रोधादि परभावोपेे अन्तर नहीं समक्षता । इसी कारण यह् वन्ध होता है यहु मौलिक प्रकृत
बात सिद्ध हुई ।
अव जिज्ञासा होती है कि इस बन्धका बभाव कैसे हो ? समाधान--जीवको परभावके प्रति कर्ताकर्मकी
प्रवृत्ति होनेसे बन्ध होता था । जब कर्ता-कमंंकी प्रवृत्ति दूर हो जाती है तव बन्धका भी अभाव हो जाता है ।
प्रश्न:--इस कर्ता-कर्मप्रवृतिका अभाव कंसे हो जाता है ? उत्तर:--जब यह जीव आत्मामं व परभावमें इस प्रकार
से अन्तर जान लेता है कि वस्तु स्वभावमात्र होती है, मं वस्तु हूं, सो मैं भी स्वभावमात्र हूं । स्वभाव कहते हैं स्वके
होनेको, में स्वज्ञानमय हूं । सो जितना ज्ञानका होना है सो तो म जात्मा हं ओर क्रोधादिका होना कोधादि है, आत्मा
(स्व) व क्रोघादि-आख्रवोंमें एकवस्तुता नहीं है । जब जीव ऐसा आत्मा व भाख्रवमें अन्तर जान लेता है तभी कर्ता-
कमंकी प्रवृत्ति टूर हो जाती है ओर कर्ता-कर्मकी प्रवृत्तिदरूर होनेपर पुद्गल कमंवन्ध भी दुर हो जाता है ।
आत्मा और अनात्माके भेदविज्ञानसे उसी कालमें आख्रवकी निवृत्ति होने लगती है । ज्ञानी जीवके इस
प्रकारका विशद ज्ञान प्रकट रहता है--मैं आत्मा सहज पवित्र हूं, ज्ञानस्वभावी हूं, दुःखका अकारण हूं, सम हूं, नित्य हूं,
स्वयंशरण हूं, आनन्दस्वभाव हूं; किन्तु ये आख्रव (परभाव; अपवित्र हैं, विरुद्ध स्वभाववाले हैं, दुःखके कारण हैं, विषम
हैं, अनित्य हैं, अशरण हैं, दुःखस्वरूप है और इनका दुख ही फल है । मे एक हुं, शुद्ध हूं, मौह रागादि परभावरहित हूं;
जञानदशंनमय हु, मै (आत्मा) कर्मके परिणमनको व नोकमंके परिणमनको नही करता हूं । पुद्गलकमं परद्रव्य है । में
परद्रग्यका ज्ञायकतो हं, किन्तु पर परद्रव्यमे व्यापक नही हं । अतएव परद्रव्यकी पर्यायरूपसे परिणमता नहीं हूं
अर्थात् मेँ परद्रव्यकी परिणतिका कर्ता नहीं हूं । में पुदुगलक्मके फल सुख दुःखादिको जान तो सकता हुं, किन्तु
पुद्गलकमंकी परिणतिका कर्ता नहीं हूं । इसी प्रकार पुदूगलकर्म भी मेरा कर्ता नहीं है ।
अशुद्ध-निश्वयनयसे आत्मा तो मात्र श्रपने मशृदध भावका कर्ता है, उसको निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य कर्मरूप
से स्वयं परिणम जाता है । जसे कि हवाके चलनेके निमित्तसे समुद्रमें तरंग उठती है । निश्चयसे तरंगोंका कर्ता तो
समुद्र ही है, हवा तो उसमें निमित्त है । हवामें हवाका काय॑ है । समुद्रमें समुद्रकी परिणति है । प्रत्येक द्रव्यकी
स्वतन्त्र सत्तात्मकताके ज्ञानसे क्म॑वन्ध सकता है भौर परको अत्मा मानने व॒ आत्माको पररूप मसाननेसे कर्मका
वंध होता है । अथवा परको आत्मा माननेवाला अज्ञानी जीव कर्मका कर्ता होता है । वस्तुतः तो ज्ञानी भी कमेका
कर्ता नही है, परन्तु अपने अशुद्ध भावका कर्ता है । उस अशुद्धमावको निमित्त पाकर कर्मका भास्रव स्वयं हो जाता
है । वस्तुतः कर्माल्लवका निमित्तरूपसे भी जीव कर्ता नहीं है, किन्तु उसके योग व उपयोग जो कि अनित्य है, वे अनित्य
परिणमन ही वहाँ निमित्त हैँ । क्योकि यह वस्तुस्वभाव अटल है- करि कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्यके रूप या अन्यके
गुण-पर्याय रूप नहीं हो सकता । इसलिये यह सुभ्रसिद्ध हुआ कि नात्मा पुदूगलकर्म का कर्ता नहीं है ।
यहाँ दो दृष्टियोंसे यह निर्णय करना चाहिये--(१) निश्वयनयसे जीव पुदुगलकमंका कर्ता नहीं है।
(२) व्यवहारनयसे जीव पुदुगलकमंका कर्ता है । (१) निश्यचयनयसे जीव पुदुगलकमंका भोकता नहीं है । (२)
व्यवहा रनयसे जीव पुद्गलकर्म॑का भोक्ता है 1 (१) निश्चयनयसे जीवे पुद्गलकमं वद्ध नहीं है । (२) व्यवहारनयसे
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