उदात्त भावना एक विश्लेषन | Udatt Bhawana Ek Vishleshan

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Udatt Bhawana Ek Vishleshan by प्रेमसागर - Premsagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० उदात्त भावना : एक विश्लेषण है ।*” धर्म के विरुद्ध जो कुछ है, वह श्रघमं है । जिस प्रकार जीवन को श्रागे बढाना श्रौर बनाए रखना धमं का श्रटल सिद्धान्त है, उसी प्रकार जीवन को पीछे ढकेलना श्रौर गिरा देना प्रधमं (घर्म के श्रभाव) का अटल परिणाम है। * धर्माचरण श्रथवा वर्मं के व्यावहारिक पक्ष पर मनु ने इस प्रकार प्रकाश डाला है--शधृत्ति (किसी भी परिस्थिति में न घबराना) क्षमा (अपने तथा दूसरों के मन की चंचलताश्रों को यथाथं रूप में देखना), दम (प्रलोभनों कै रहते भी मन की दृढता), श्रस्तेय (दूसरों की वस्तुप्रों को श्रग्राह्य समना), शौच (आ्राम्यन्तरिक ग्रौर बाह्य पवित्रता), इन्द्रिय संयम, बुद्धि विद्या, सत्य, ्रक्रोध (क्रोध न करना), ये दश धमं के लक्षण हैँ । 3 भ्राघुनिक मान्य विचारकों कै ्रनुसार घमं मानवीय अनुभवों का एक ऐसा तत्त्व है जो सदा ऊष्वंमुखी रहा है ।' सांख्य भी यही कहता है कि 'धर्मेंणोध्वंगमनसु' ।* इस तरह व्यापक श्रथ में धमं एक उदात्त घारणा है ्रौर धमं कौ संस्थापना के हेतु मानव रूप में प्रवतरित ईष्वर उदात्त का प्रकृष्टतम उदाहरण है । लीला का प्रयोजन लीला मानने की परिकल्पना शअ्पेक्षाकृत कम महत्त्वपूर्ण हैं । श्रतएव लीला काव्यों की श्रपेक्षा ्रीदात्य की दृष्टि से चरित-काव्य प्रधिकं महत्वपृणं है । जीवनानन्द का पर्याय होने पर लीला भी उत्कपंक हो जाती है । धर्म के नाम पर मात्र बाह्याचार, रूढ़िवादिता, साम्प्रदायिकता श्रादि संकी वृत्तिर्या लोक संग्रह्‌ के विपरीत जाती हैं, श्रतः उदात्त की परिधि में नहीं श्रातीं । धर्म एवं धमं संस्थापक (परमतत्व) की परिकल्पना मे उदार हृष्टि, उसकी श्रनन्तता एवं श्ननन्त रूपता मे विश्वास, उसकी सिद्धि की विभिन्न पद्धतियो में श्रास्था श्रादि घारणाणं ही धमं का उदात्त पक्ष हैं । (ड) सहामानव परमतत्त्व या ईश्वर के मानवावतार से थोड़ा सिलती-जुलती महामानव या लोकोत्तर मानव की परिकल्पना है । वंसे तो ईश्वर सभी भूतों * के हदय १ मिश्च, जनादेन, “भारतीय प्रतीक विद्या, पृष्ठ २०, पटना--१६५६ 1 २ वही०। ३ वही... . पृष्ठ वही ४ शास्त्री, विद्या्रर, श्वम दाशेनिक वरै मासिक, पृष्ठ ४५, नवम्बर १९५६ । ५ भूते सृष्टि तीन प्रकार की है“ “१. अघं्ञ-जैसे पापाण आदि। २. अन्तःसं्- जसे वृक्ष जादि । ३. ससं्- जसे पुरुष, पशु आदि 1 मग्रवाल, वायुदेवशरण-- वेदविदा पृष्ठ ७१, जागरा (१६५६ ) 1




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