चौथा कर्मग्रन्थ | Chotha Krama Granth

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Chotha Krama Granth by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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-परिशिष्ट । जीवस्थान-श्रधिकार। २७ न यह पुद्रलमय स्वरूप प्रक्षपनासून्-इन्द्ियपदकी रीका १० २९४ के भनुसार द । भावाराङ्- वृत्ति प० १०४ मे उसका स्वरूप चेतनामय वत्तलाया है । श्राकारके सम्बन्धे यद्‌ वात जाननी चाहिये कि त्वचाकी श्राक्ृति ्रनेक प्रकारकी ्टोती है, पर उसके वाद्य श्रौर श्राम्यन्तर श्राकारमें जुदाई नहीं है । किसी प्राणीकी त्वचाका जसा मा श्राकार होता दै, वैसा ही श्राम्यन्तर भाकार दोता है। परन्तु न्य इन्द्ियोके विषयमे पेसा नही दे -त्वचाको छोड़ ्न्थ सब इन्द्रियोंके !श्राभ्यन्तर आकार, वाध्य श्राकारसे नष मिलते 1 सब जातिके प्राणिरयोकी सजातीय इन्दरियकि श्राभ्यन्तर श्राकार, एक तर्के माने ये 1 जैतेः- कानका भ्राभ्यन्तर ्राकार, कदम्ब्-पुष्प-जैसा, श्रो लका मसूरके दाना-नैसा, नाकका भतिमुक्तकके पूल-ने्ा भौर जीमका चुरा-जेसा दै । किन्तु बाध्य आकार, सव जात्म भिन्न-भिक्न देखे जाते रै, उदाष्टरणाथं -मनुष्य, हाथी, षोढ़ा, बैल, बिघ्ठी, चूदा श्रादिके कान, आं, नाक, जीमग्रो देखिये । (ख) धराभ्यन्तरनिरद्तिकी विषय य्टण-शक्तिको उपकरणेन्द्रिय' कते ई ! (२) भवेन्दरिय दो प्रकारक है -(१) लब्धिरूप श्रौर (२) उपयोगरूप । (१)--मतिश्चानावरणके प्षयोप्शमको--चेतना-शक्तिकी योग्यता-विरोषक्रो-- लस्धिरूप भविन्दरियः कदते दै । (२)--इस लश्धिरूप भावेन्द्रियके अनुसार श्रात्माकी विषय-ग्रदणमें जो ्रमृत्ति होती है, उसे 'उपयोगरूप मावेल्द्रिय” कहने हैं । इस विषयको विस्तारपूर्वक जाननेकेलिये प्रज्ञापना-पद १४५, एृ० २४३, तत्त्वार्थ श्रध्याय २, सू० १७-१८ तथा इृत्ति, विशेषाव०, गा० २२९३-२००३ तथा लोकप्रकाश-सर्ग रे, झ्लोक ४६४ से भ्नागे देखना चाये ।




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