धरती की ओर | Dharati Ki Or

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Dharati Ki Aur by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घरतीकी ओर १७ सालत्तक रख लिया, यही ञुनकी वडी अूदारता कहनी चाहम । अपनी पर्नीका मन वहलानें या दिलकी वात करनेके लिखे घरमें कोओ जीव तो हीना ही चाहियें, निसीलिमे जिस बछडेको नहीं हटाया था । भला जैसा कितने दिन चल सकता था? अभी दो दिन पहले जुनका अके आसामी सूरप्पा आया था । मुने भी कहा था-“अगर जिसे चार रुपमेमें दें तो में ले लूंगा ।” मिसीलिमे मेतालजीने पूछा-“पारोती ! बछडा सुरको दे डालें ? तेरी गोपी गाय तो बछिया देती ही नही, केकार जिन वछ्डोको पाल-पोसकर क्या करेगे ? हमें बैलगाडी तो चलाना नहीं । आखिर वह सुर भी तो अपना ही आदमी है ? फिर हलमें जोतनेके लिखे भेंसा तो कल ुसीके पाससे अभेगा 7” जिस दिनं मुसने पारोतीसे यह पूछा अुसी दिन श्ञामकों सुरप्पा भी आया, और मुसे वछडा वेंच दिया गया । गोपीके छठवाँ बछडा पैदा हुआ, जो बेंच दिया गया । सुरप्पाकों सिसी जोडीका दूसरा बछडा दूंढने तक, जिसे खिला-पिकके पालने क्या सुख-सतोप था ? अृसका सुख पो भूमे जल्दी-से-नल्दी जोतनेमे है । अगले तीन वर्षोमिं जिसकी जोडी छह वार दूसरोके हाथ लगकर ओक्षल हौ जाभेगी । गोक्लल हो जनेका अथं सहज ही किसी-त-किसी वीमारीका शिकार हो जाना है । गोपीका छठवां वछढा वे चते समय बुसके पांच वछढोका भितिहास याद्‌ आमे विना नही रह्‌ सकता । ब्रह्मान जो कुछ जृसके नसीवमे लिखा है, जुसे कौन टार सकता है ? यही सोचकर वचछ्डेको अपने ही पेटके वच्चेकी भाँति दरवाजेंके वाहर छे जाकर “जायो मायी । ” कहकर पारोतीने ` विदा किया । असे विदा करते समय असकी अखं दो-चार वंद आसु वहानां नही मूली ! आज जतालजीको पौ रोहित्यके कामके चिमे नाला पारकर दूसरे गावं मेजना पडा था, लिसलिमे पारोतीके मनर्मे वद्या कष्ट हो र्हा था। घरमें वोलनेके किमे गोपीका वछ्डा भी नही था। भिसी गरमी्े भसे सुरप्पा ले गया, अतमेव ओठोपर ताला लगाकर ननद-भौजायी दोनो घरके काम- काजमें लगी रही । पारोती चल्देमें गीली रुकडी लगाकर फूक-फककर घ गो -र




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