आर्य संसार | Aarya Sansar

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Aarya Sansar by अभय विद्यालकार - Abhay Vidyalakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भोम प्रर्तात्ना भाप स्वाध्यायप्रेमी सजनों की सेवा में इस वरष अथवे- वेद्‌ का यह ब्रह्मगवी सूक्त ( पश्चम काण्ड का १८ घां सूक्त ) स्वष्यायके स्थि समर्पित है) इस सूक्त म एक म्तबशी प्रनाद्रोही राजाके मुकाबले में एक विचारे ब्राह्मण की गरीब सी वाणी को दिखाया है जिसमें कि अन्त में इस “त्राह्मण-वाणी' की ही अनायास विजय होती है। ईश्वर दासित इस संतार में यद घटना कोई नयी नहीं है । ऐसा सदा ही होता है । यह सनातन सत्य है । पर इम इसे देखते हुये भी नहीं देखते । इस सत्य का दशन हमें कौन करवावे ? भारतव्ष की रजःक्रण ते उतपन्न हुई इम सन्तानों में; लिनमें फ़ वेदिक सम्यता चिरकाढ तक कमी पूर्ण यौवन में विकसित रही है; यदि वेद का यह सुन्दर ओबस्वों सूक्त-गीत इस सत्य को सुकताने में सशयक हो तो इसमें कुछ आइचये नहीं है | यह वेदिक सूक्त तो रा प्रजा दोनों के िये है । इस सक्त कै सावैमौम, सावंदेशिक उपदेश को यदि दोनों ( राजा यर प्रजा ) सुने, स्वीकार करं तो निस्वन्देह दोनों का इसमें कल्याण होगा । पर हम प्रजाजनों को तो ईस सूक्त से अपने छिये उपदेश लेना ही चाहिये। इसमें सन्देद नहीं कि यदि हम इस सूक्त में सुकाई गई सचाई को स्वीकार कर ले तो मरे हुये; दवे हुये, विछकुछ हताश हुये इम भारतवासियों में नये प्राण का संचार हो बाय !# इसमें हमारे लिये आशा का आत्मविषवास का सदेश है } यदि हम श्ये सनं घो अन्धाय की मवह्र चतुरङ्गिणी फोन से चारो तरफ घिरे हुये भी बेशक हम हों तो भी-- (अद्य जीवनि मा शः ८अन्याय आज वेश $ जोवित हैं, पर करू नहीं” इस अटर अद्धा के कारण शख दशा में भी निर्मीक भर निश्चित होकर अपने मार्ग में चल्ते-चके थाये। इस सूक्त के ८ वे मन्त्र में जिस दिव्य अस्त्र का वणन है आर जिते ९ वे मन में भमोष अस्त्र कहा है, यदि इम सचमुच पूरे दिल से उस अस्त्र को प्रदण करले तो हमें कौन दुनिया मे नीचा रख सकता है हम धनुष बाण ( तोप बन्दूक ) को ही हथियार समकते हैं ? भौर इनके अमाव को देखकर दुः्खी होते हैं, पर तब हमें पता लग लाय कि हमारा असली बढ; इमारा असखी शस्त्र सदा हमारे पास है । उसके सामने तोप बन्दूक मिलकर देच हैं, ये बेकार पढ़ी रह जाती हैं । श्वर करे कि इष सूक्त का अध्ययन हम असहायो मे हमारे मसटी बर को अनुमष करा दे, हमारे हथो मे ध्मा सश्चा अमोष अख पडदा दे । (अध्य) * यह परन्त्रता के दिनों में लिखा गया था । सिकबर, १६७२ ] -सम्पादक | शाये-संक्ार




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