स्वर्गप्राप्ति | Svargapraapti

Svargapraapti by गिरिधारीलाल शास्त्री - Giridharilal Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ध १४ ) कि ~~ ~~ ~~ «^^ ~~~ ~^ ( कि इेश्वर देख रहा है, फिर सें केमे तोहता । महात्मा इस दूभरे से बड़े प्रसव हुवे और इस को 'पना शिष्य ब लाया । इसी प्रकार जो जमष्यदेश्वरको सष जगह देखता 2 वह सदा पापों मे कथा रहता है । इमीषा उपदेश सवं भमष्योंषफो यलवद के षालीसवं अध्याय के प्रथम सन्त्र से किया हि किः- इ शावास्यमिदंथ्सव्‌ यत्किञ्च जगत्यां ज- गत्‌ । तेनं रक्तन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनमर ॥ यजः अ० ४० म १९॥ यह जो कर हम ससार में चर श्र अचर देख रहे हैं यह सब ( इंशावास्पम्‌ ) परमात्मा से भरा हुआ है छधात्‌ देश्वर सब में व्यापक है । इस लिये इश्वर को प्र- त्यक्ष ( हाजिर नाजिर ) समको और किसी का हक घन खररह मत दप्नो । अतः मब पापों से बचने के लिये सन्ध्योपामन करना परम धमं है और यही इस शरीर रूपी कल्प बल्न की जड़ जमानी है ॥। न दस वृक्ष में पानी दूना क्या है उस को में बतलाता हू-इसी सन्ध्यापासन में प्राणायाम की क्रिया बताई गई है ससख का करना पानी देना है । इस शरीर में कड़े झरब कई करोड़ नस नाड़ी हैं जिन को वैद्य शाखे ख्रताया दे । डाक्टरों ने भी नस शरीर नाडियों की संख्या थी हे परन्त इन को ठीक पता नष्ीं खगतला । क्योंकि ये अर्दा का तशवा जिन्दों पर अमल में लाते हैं । डाक्टर




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