वैदिक धर्म | Vaidik Dharm

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : वैदिक धर्म  - Vaidik Dharm

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

Add Infomation AboutShripad Damodar Satwalekar

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
पक काटल शाशा पहले ही यह शातन्य है कि यह संशय नहीं किया जा सकता कि एक ही शाखा- नास दो पृथक्‌ वेदों केसे सम्भव हो सकता है । श्ाखाकारके नामानुखार दाखा-नाम दते हैं यह सावैप्रिक नियम र, घतः यदि एक नामके एकाधिक शाखाकार ऋषि हुए हैं, तो समान नामवाली एकाचिक साखा ( एक या पूकाधिक वेदोंमिं ) स्वथा उत्पन्न हो ही सकती हैं । हम प्रत्यक्षतः देखते हैं कि सुमम्तु नामक एका- चिक शायायोंने साम-अथदे-दाखारभोका प्रवचन ( पुराणाक् शाश्मा-विचरणके अनुसार » किया है । ' परः र-शाखा ऋरेव- दीय भी है, झुक्लयजुर्वेदीय भी *, उसी प्रकार गौतम-जाखा ऋ्वेदसें भी है कर सामदेदमें भी । * इस प्रकार के अन्यान्य उदादरण भी मिठते हैं । अतएुव एकाधिक शाखाकें समान- नामव पर सशय नदी किया जना सकता । * कट ` नाम ऋग्वेदीय दाखा-षिशेधका ट, यद हमचन्द्र- क्रत कोशसे भी अनुमित होताद। यह कहा गया हैं-- ८ कठो मुनौ स्वर चां भू तत्पाठिवेदिनो: । ' * इस स्टोक्स यह स्पष्टतः; कात होता है कि ‹ ऋचां भेदे ' ( ऋग्वद भेद, भर्थात्‌ शाखाएं ) भी कठ शब्दका भय हें । नाखाके लिए ^ मेद्‌ ` शन्दरका प्रयोग उचित ही है; क्योकि शाखा प्रस- गमे पुराणो ‹ भिद्‌ ' धातुका प्रयोग बहुधा मिलता है- बिभेद प्रथमे पैल ऋम्वेदपादपम्‌ ( वरिप्णुपुराण, ३।४।१६ तधा कमे, १।४९।५२ ) । कोम यह भी कहा गयाहे कि दस शाखा पाठक ओर वेदिता [ त. अष्टाध्यायी, ` तद्भीत तद्‌ - वेद ' (४।२।५९); हस सूत्रका नेदिष्ठ सम्बन्ध वेदिक (४५५) साहित्यक साथ हे। छन्दोब्राह्मणानि ( ४1२६६ ) सूत्रसे ज्ञात होता है ] भी * कठ ' कहे जाते हैं । ग्रह बात सत्य है, जो पाणिनिके * कठ्चरकाठलुक ` ( ४1३1१ ०७ ) सूतरसे भी ज्ञात द्वोता है । इससे यदद स्पष्ट ज्ञात द्वोता है कि ऋग्देदकी कोई कठशाखा थी । यह ज्ञातव्य है कि कोशस्थ ऋचां मेदे का अर्थं ` ऋडमन्त्रका भद ' रेसा नही हौ सकता; क्योकि ऋक्‌ ' मन्य्रके ऐसे किसी भेद- ( प्रकार ) का उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता । प्रचलित कठोंपनिषदसे अन्य भी कोई कठोपनिषद्‌ थी, ऐसा ज्ञात होता हे} छान्दोग्योपनिषद ( ६1३1२ ) की ब्याख्यासें * दृति दि काठके * कदकर ' समूचे यया सवैलोक- स्य... ` भौर ' भाकाशवत्‌ सबेगतश्र... ' वाक्य उदछूते किये हैं । इनमें प्रथम वाक्य तो प्रचलित कठोपनिषरद ( २। २।१२ ) में मिठ जाता है, पर दूसरा वाक्य नहीं सिछता । वह दूसरा वाक्य भी किसी कटोपनिषट्का होना चाहिए, और दम समझते हैं कि यद वाक्य कऋखेदीय कठशाखास्त- गत कठ़ोपनिषदका है, ऐसी सम्भावना है । “ करग्वेदीय यद कद ऋषि कौन हैं, इसका विशिष्ट परिचय नहीं मिलत। । शान्तिपन ( ३३६1९ ) मे जो ' भादः कटः ! वाक्य है, यह सम्भवतः इस कटको रक्ष्य करना हो, यद्यपि इसका गमक कुछ नहीं मिलता । यदि ऐसा न माना जाय, तो यह मानना होगा कि कृप्णयजुरवेदीय ' कठ ' ही नटग्वेदीय गाखा -विशेषक प्रवचनकारी हैं । यह असम्भव भी नहीं है; क्योंकि अधवेंबेदीय जौनक यदि ब्रहुवृच ( त्रक्तएखावित्‌ ) १ विष्णुपु. ३६।२ में साम शाखाकारक रूपमें सुमन्तुका नाम है भार ३६।९ में अथवंशाखाकारके रूपमें। वायु, भ०। रप्-६१ तथा ब्रह्माण्ड १1३४।२४-३४ में भी वेद्शाखा-प्रकरण है. यदद ज्ञातच्य है । २ वैदिक वाङ्मयका हृतिहास, माग १, पर. २०७। द वही, ण. २२९। ४ चौखम्बा-संस्करण, प्र. १५। मुद्रित पाद है- ' करों मुनौ * *', पर यहीँ ` कंट ' पाठ ही होमा | वस्तुतः, मुद्रण प्रमादके कारण “ हृति द्विस्वरटान्ता: ' रूप पाठ इस वाक्यकें बाद हो गवा ह, नौर इसका पाट ` जातदरपे प्रतिहते ` इस पू्श्तेकके भाद ही होम) चादिए था । प्रस्तुत कटो मुनौ › शोक ` ह्विस्वरठान्तबग ' का सर्वादिक शोक होसा। मेदिनी- कोदाके टद्विकवगैमे ' कटो मुनौ... ` कहा गया है, पर वह वेदका प्रसंग नहीं है । ५ समान नामके एकाथिक उपनिषदोकेर अन्य उदाहरण भी मिलता हे । श्वेताश्वतर -उपनिषद्‌ २।१४ के शांकर भाष्य में ' परेषां पठि ' कहकर प्याख्येय मन्तरका एक पाठान्तर दिया सया द । पर, यह्‌ वस्तुतः पाठान्तर नहीं है, बस्कि अन्य- इसख्रीय श्वेताश्रतर-उपनिधद्का पाठ ही है, यदद ‹ प्रेषां ' पदसे ध्वनित दत दै, वैदिक सम््रदयका ब्यवहार ऐसा ही है । ँताश्वतर-शाखाकी दो मन्प्रोपनिषद्‌की सत्ता प्रमाणान्तरसे भी सिद्ध होती है ।-- वैदिक वाखयका इतिहास, माग १५ पर, ९९१ |




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now