वैदिक धर्म | Vaidik Dharm

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Vaidik Dharm  by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पक काटल शाशा पहले ही यह शातन्य है कि यह संशय नहीं किया जा सकता कि एक ही शाखा- नास दो पृथक्‌ वेदों केसे सम्भव हो सकता है । श्ाखाकारके नामानुखार दाखा-नाम दते हैं यह सावैप्रिक नियम र, घतः यदि एक नामके एकाधिक शाखाकार ऋषि हुए हैं, तो समान नामवाली एकाचिक साखा ( एक या पूकाधिक वेदोंमिं ) स्वथा उत्पन्न हो ही सकती हैं । हम प्रत्यक्षतः देखते हैं कि सुमम्तु नामक एका- चिक शायायोंने साम-अथदे-दाखारभोका प्रवचन ( पुराणाक् शाश्मा-विचरणके अनुसार » किया है । ' परः र-शाखा ऋरेव- दीय भी है, झुक्लयजुर्वेदीय भी *, उसी प्रकार गौतम-जाखा ऋ्वेदसें भी है कर सामदेदमें भी । * इस प्रकार के अन्यान्य उदादरण भी मिठते हैं । अतएुव एकाधिक शाखाकें समान- नामव पर सशय नदी किया जना सकता । * कट ` नाम ऋग्वेदीय दाखा-षिशेधका ट, यद हमचन्द्र- क्रत कोशसे भी अनुमित होताद। यह कहा गया हैं-- ८ कठो मुनौ स्वर चां भू तत्पाठिवेदिनो: । ' * इस स्टोक्स यह स्पष्टतः; कात होता है कि ‹ ऋचां भेदे ' ( ऋग्वद भेद, भर्थात्‌ शाखाएं ) भी कठ शब्दका भय हें । नाखाके लिए ^ मेद्‌ ` शन्दरका प्रयोग उचित ही है; क्योकि शाखा प्रस- गमे पुराणो ‹ भिद्‌ ' धातुका प्रयोग बहुधा मिलता है- बिभेद प्रथमे पैल ऋम्वेदपादपम्‌ ( वरिप्णुपुराण, ३।४।१६ तधा कमे, १।४९।५२ ) । कोम यह भी कहा गयाहे कि दस शाखा पाठक ओर वेदिता [ त. अष्टाध्यायी, ` तद्भीत तद्‌ - वेद ' (४।२।५९); हस सूत्रका नेदिष्ठ सम्बन्ध वेदिक (४५५) साहित्यक साथ हे। छन्दोब्राह्मणानि ( ४1२६६ ) सूत्रसे ज्ञात होता है ] भी * कठ ' कहे जाते हैं । ग्रह बात सत्य है, जो पाणिनिके * कठ्चरकाठलुक ` ( ४1३1१ ०७ ) सूतरसे भी ज्ञात द्वोता है । इससे यदद स्पष्ट ज्ञात द्वोता है कि ऋग्देदकी कोई कठशाखा थी । यह ज्ञातव्य है कि कोशस्थ ऋचां मेदे का अर्थं ` ऋडमन्त्रका भद ' रेसा नही हौ सकता; क्योकि ऋक्‌ ' मन्य्रके ऐसे किसी भेद- ( प्रकार ) का उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता । प्रचलित कठोंपनिषदसे अन्य भी कोई कठोपनिषद्‌ थी, ऐसा ज्ञात होता हे} छान्दोग्योपनिषद ( ६1३1२ ) की ब्याख्यासें * दृति दि काठके * कदकर ' समूचे यया सवैलोक- स्य... ` भौर ' भाकाशवत्‌ सबेगतश्र... ' वाक्य उदछूते किये हैं । इनमें प्रथम वाक्य तो प्रचलित कठोपनिषरद ( २। २।१२ ) में मिठ जाता है, पर दूसरा वाक्य नहीं सिछता । वह दूसरा वाक्य भी किसी कटोपनिषट्का होना चाहिए, और दम समझते हैं कि यद वाक्य कऋखेदीय कठशाखास्त- गत कठ़ोपनिषदका है, ऐसी सम्भावना है । “ करग्वेदीय यद कद ऋषि कौन हैं, इसका विशिष्ट परिचय नहीं मिलत। । शान्तिपन ( ३३६1९ ) मे जो ' भादः कटः ! वाक्य है, यह सम्भवतः इस कटको रक्ष्य करना हो, यद्यपि इसका गमक कुछ नहीं मिलता । यदि ऐसा न माना जाय, तो यह मानना होगा कि कृप्णयजुरवेदीय ' कठ ' ही नटग्वेदीय गाखा -विशेषक प्रवचनकारी हैं । यह असम्भव भी नहीं है; क्योंकि अधवेंबेदीय जौनक यदि ब्रहुवृच ( त्रक्तएखावित्‌ ) १ विष्णुपु. ३६।२ में साम शाखाकारक रूपमें सुमन्तुका नाम है भार ३६।९ में अथवंशाखाकारके रूपमें। वायु, भ०। रप्-६१ तथा ब्रह्माण्ड १1३४।२४-३४ में भी वेद्शाखा-प्रकरण है. यदद ज्ञातच्य है । २ वैदिक वाङ्मयका हृतिहास, माग १, पर. २०७। द वही, ण. २२९। ४ चौखम्बा-संस्करण, प्र. १५। मुद्रित पाद है- ' करों मुनौ * *', पर यहीँ ` कंट ' पाठ ही होमा | वस्तुतः, मुद्रण प्रमादके कारण “ हृति द्विस्वरटान्ता: ' रूप पाठ इस वाक्यकें बाद हो गवा ह, नौर इसका पाट ` जातदरपे प्रतिहते ` इस पू्श्तेकके भाद ही होम) चादिए था । प्रस्तुत कटो मुनौ › शोक ` ह्विस्वरठान्तबग ' का सर्वादिक शोक होसा। मेदिनी- कोदाके टद्विकवगैमे ' कटो मुनौ... ` कहा गया है, पर वह वेदका प्रसंग नहीं है । ५ समान नामके एकाथिक उपनिषदोकेर अन्य उदाहरण भी मिलता हे । श्वेताश्वतर -उपनिषद्‌ २।१४ के शांकर भाष्य में ' परेषां पठि ' कहकर प्याख्येय मन्तरका एक पाठान्तर दिया सया द । पर, यह्‌ वस्तुतः पाठान्तर नहीं है, बस्कि अन्य- इसख्रीय श्वेताश्रतर-उपनिधद्का पाठ ही है, यदद ‹ प्रेषां ' पदसे ध्वनित दत दै, वैदिक सम््रदयका ब्यवहार ऐसा ही है । ँताश्वतर-शाखाकी दो मन्प्रोपनिषद्‌की सत्ता प्रमाणान्तरसे भी सिद्ध होती है ।-- वैदिक वाखयका इतिहास, माग १५ पर, ९९१ |




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