प्रहसन परम्परा और भगवदज्जुकीयम | Prahsan Parampara Aur Bhagvadjjukiyam

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Book Image : प्रहसन परम्परा और भगवदज्जुकीयम  - Prahsan Parampara Aur Bhagvadjjukiyam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यह 'पार' शब्द भी चास्तव में अपने शाब्दिक अर्थ की प्रतीति के अधिक समीप है, जिसका आशय तीर'*, किनारा अथवा अभिभावक से है! यह प्रतीति फार को रूपक अथवा उपरूपक के किञ्चित्‌ सम्भ नर्ही आने देती परन्तु नष्टक तथा प्रकरण चने वैशिष्ट्य को अन्य आठ रूपकों की अपेक्षा अवश्य सबलता प्रदान करती है जिस सबलता के कारण भरतमुनि ने माटक तथा प्रकरण को सर्ववृचिनिष्पन्नं कह कर सम्बोधित किया है। (2) छास, हासोस्पत्ति तथा हास के प्रकार : नाट्यशास्त्र कं आठ नाटूयरसो में हास्य रस का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हास्य शब्द की व्युत्पत्ति हस्‌ धातु मेँ धञ्‌ एवं ण्यत्‌ प्रत्यय के योगसे हयी है! हास्य रस का स्थायीभाव हासं है| यह चित्त की एर. सहजं वं स्थिर प्रवृत्ति है। जीवन में हास्य का समाहार उसकी निस्सार्ता को नष्ट करता है। संभवत: इसी कारण एक दुःखी व्यक्ति के दुःख को दूर करने हेतु सामाजिकों द्वार उसको हंसा कर रिझाने का प्रयास किया जाता है। ऐसे क्षणों में उस व्यक्ति को शैंड्रारिक वस्तुयें उतना प्रभावित नहीं कर पातीं जितना कि विकृत आचार-सिचार, भाषा, व्यग्यार्थं एवं वेषालंकार ! ये सन क्रियार्ये हास के विभाव है, जिनकां आश्रय चतुर्विध अथिनय हैः । इनं अभिनयो मे ओष्ठ दशन, नासिका व कपोलों का स्फुरण, दृष्टि संकोच एवं आवश्यकतानुसार व्यंग्य मुद्रा मेँ दृष्टि का विमोचन व विस्फारण आदि प्रमुख हैं। इन्हें अनुभाव कहते हँ । निद्रा, तन्द्रा, स्वप्न, असूया प्रबोध तथा अवहित्था इसके व्यभिचारी भाव है! यही भाव, विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारी भावों का योग हास का उत्पादन कर मनुष्य मे एकं विलक्षण आनन्द का स्रोत प्रवाहित करते हैँ । जिसे हास्यरस कहा जाता है । रस का यह आनन्द काव्य से प्राप्त होता है चाहे वह दृश्य हो अथवा श्रव्य। दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। आचार्य भरत के अनुसार रस के बिना किसी अर्थ का प्रवर्तन ही नहीं होता । रस काव्य की सस्कृतत रूपकों मैं प्रहसन का स्वरूप (5)




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