संत तुकाराम | Sant Tukaaraam
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
165
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१२ | सत तुकाराम
लोगों का एक श्रलग ही पंथ बन गया ।
इस विहल-भक्ति के संप्रदाय के श्रीशानेश्वर महाराज के कारण बड़ा महत्व
प्राप्त हुआ । भीशानेश्वर महाराज एक बड़े भारी विद्वान् साधु-पुरुष थे । इन के गुरु इन के
दी बड़े भाई निवृत्तिनाथ थे । यद्यपि निदृत्तिनाथ को गाहनीनाथ के द्वारा नाथ-संप्रदाय की
दीछा प्रात हुई थी, तथापि नाथपंथी योग की श्पे्ता शानेश्वर ने भगवद्धक्ति का ही
अधिक विस्तार क्रिया| श्राप ने पंद्रह वर्ष की श्रवस्था में भ्रीमद्धगवद्गीता पर एक बड़ी
विस्तृत श्रर॒विद्रत्तापूणं भावबोधिनी नामक मराठी टीका लिख डाली । श्ञानेश्वरी नाम से
यही टीका बड़ी प्रसिद्ध है । मराठी भाषा के सर्वमान्य श्रायम्रंथ का मान इसी ग्रंथ को है
श्रौर वारकरी-पंथ का तो यह मुख्य ग्रंथ ही माना गया है। इस प्रंथ में भगवद्धवित को
योग या शान से श्रधिक महत्व का बतलाया गया है । कर्म की तो इस में श्रच्छी ही भगल
उड़ाई है, श्रौर उसी के साथ-साथ कर्मठ ब्राह्मणों की । इस का एक कारण यह था किं
ओशानेश्वरजी को कर्मठ ब्राह्मणों द्वारा बड़ी तकलीफ़ उठानी पड़ी थी। शानेश्वर के
पिति विष्टल पंत श्रपनी तरुण श्रवसा म संतति उत्पन्न करने के पहले ही अपनी पत्नी का
त्याग कर संन्यास-दीक्षा ले चुके थे। पश्चात् श्रपने गुरु की श्राज्ञानुसार उन्होने फिरसे
गहस्याश्रम में प्रवेश किया । इस द्वितीय प्रवेश के बाद उन्हें निवृत्ति, ज्ञानेश्वर श्रौर सोपान
नाम के तीन युत श्रौर सुक्ताबाई नाम की कन्या हुई । इस रीति से संन्यासी के पत्र होने के
कारण ये चारों जाति-बहिष्कृत थे । इसी श्रपमान के कारण श्रीशानेश्वर जी का चित्त भक्ति-
मार्ग की श्रोर कुका । उन्हों ने अपनी समर्थ-वाणी से प्रतिपादन किया कि दैश्वर-प्रासि के
लिए त्राह्मणों की श्रावश्यकता नहीं है, हर एक मनुष्य को ईश्वर की उपासना करने का
एक-सा हक है, श्रौर सप्रेम चित्त से यदि ईश्वर-भक्ति की जावे, तो बिना ब्राह्मणों कीं
सिक्रारिश के किसी भी मनुष्य को मवित मिल सकती है । श्रीज्ञानेश्वर केवल इछ्कीस वर्ष की
झवस्था में ही समाधिस्थ हुए । इन का समाधि-काल ई० १२६६ है। इन की समाधि
झाकंदी नामक गाँव में है |
भक्तिपंथ का माहात्म्य बढ़ाने में जिस प्रकार श्रीज्ञानेश्वर जी की प्रंथ-रचना का
साहाय्य हश्रा, उसी प्रकार हस पंथ की लोकप्रियता बढाने कामान नामदेव जी को
मिला । नामदेव जी के पिता दामाशेटी जाति के दर्जी थे। इन्हें बहुत दिन तक पुत्ररत्न न
श्रा | इन की स्री श्रयात् नामदेव जी की माता गोणाई ने पंढरपुर के श्रीविइल को खूब
मनाया श्रौर भीविइल की कृपा से उसे पुत्र हुश्रा । इसी का नाम नामदेव था । श्रपनी जवानी
में ग्रहस्थी करते हुए नामदेव जी के भाई.-बंदों ने ,स्तूब फैँसाया । श्राखिर संसार-दुःखों से
घ्स्त हो इन का चित्त ईश्वर की तरफ़ कुका श्रौर ये हमेशा साधु-संतों के सहवास में रहने
लगे । धीरे-धीरे इश्वर-भक्ति में इन का चित्त रैंगने लगा । श्रंत में ज्ञानेश्वर के छोटे भाई
रोपानदेव के विसोवा खेचर नाम के शिष्य से नामदेव जी ने उपदेश अहण किया । इन्हीं
गुरु के पास इन्दों ने झभंग नामक मराठी छंद की रचना सीखी श्रौर इसी छुंद में
रचना कर नामदेव भजन-कीर्तन करने लगे। इस भजन-रंग में श्राप ऐसे रग जाति कि
झाप के खाने-पीने की भी सुध-बुध न रदती थी । घर में, बाहर, उठते-बैठते, सदा-सर्वदा
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