उत्तर प्रदेश में बुध्द धर्म का विकास | Uttar Pradesh Main Baudha Dharma Ka Vikash

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कृष्णदत्त वाजपेयी - Krishnadatt Vajpeyi

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नालिनाथ दत्त - Nalinath Datt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उत्तर प्रदेश के प्राचीन राज्य ५ थी और इसकी उत्तरी सीमा नैपाल के सीमावर्ती पहाडी क्षेत्रों को स्पर्श करती थी। ई० पु० पाँचवी शती में अयोध्या ने अपना महत्त्व खो दिया और उसके स्थान पर शावस्ती (सावत्थी) प्रधान नगर एव राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित हुई । सावत्थी के बाद दूरारा महत्त्व का नगर साकेत था । ऐसे बहुत से ग्राम और नगर थे जिनमे बौद्ध भिक्षू जाया करते थे, जैसे-सेतव्य, भालवि, इच्छानगल, उकंट्ठ, एकसाला, ओपसाद, केसपुत्त, चडाककप्प, तोरणवत्थु, दडकप्प, नगरविद, मनसाकट, नालकापन, पकघा, वेनागणुर, बेछुद्वार, साल, साछ्वतिका, आतुमा, अग्गालवचेतिय, उजुब्त्रा, कट्ठवाहननगर, भुसागार, पडुपुर, साधुका । परतु इन सभी स्थानों की पहचान करना सभव नहीं है । सावत्थी (श्रावस्ती )--की पहचान कनिघम ने सहेत-महेत से की है, जो गोडा और बहराइच जिलो की सीमा के पास राप्ती नदी के तट पर स्थित है। फाह्यान और हुएन-साग इस स्थान पर गये थे । उस समय यह ध्वस्त हो चुका था । बुद्ध नें अकेले इस नगर में ही पचीस वर्षाएँ व्यतीत की थी और अनेक व्याख्यान दिए थे । सावत्थी में तीन प्रसिद्ध विहार थे--जेतवन, पुब्बाराम और राजकाराम । इन तीनों में जेतवन सबसे भव्य और विशाल था ¦ इसका स्थान सारिपुत्त के द्वारा चुना गया था, जिन्हें बौद्ध भिक्षुओ के रहने योग्य एक विहार के निर्माण के हेतु आवश्यक आदेश देने के लिए बुद्ध ने नियुक्त किया था । वह स्थान राजकुमार जेत के राजकीयं उद्यान का एक भाग था । जेत उसे बेंचना नहीं चाहता था, इसलिए उसने उसका अत्यधिक मृल्य मोगा ओर कहा कि मे उतनी ही भूमि बेचूंगा जितनी उसका क्रेता 'कहापणों' (कार्षापण मुद्राओ) से ढक देगा । अतुल धनराशि के स्वामी अनाथर्पिंडिक से यह शर्तें स्वीकार कर ली और विहार के लिए जितनी भूमि अभीष्ट थी उतनी भूमि पर अपने कोष से गाडी भर मुद्राएँ लाकर बिछा दी! अतत राजकुमार को भूमि बेचनी पडी । यह जानने पर कि इस भूमि पर महात्मा बुद्ध के रहने के लिए एक विहार का निर्माण होगा, राजकुमार जेत ने कहा कि मै केवर भूमि काही मूल्य लगा, उसमे उगे वृक्षो का नहीं । वह उन वृक्षों को भिक्षुसंव को दान करके महात्मा बुद्ध के प्रति अपना आदर-भाव प्रकट करना और कुछ पुण्य अजन करना चाहता था । जेतवन विहार अवश्य ही बहुत विशाल रहा होगा, क्योकि उसमे अनेक रहने के कमरे और कोठरियाँ, द्वार-प्रकोष्ठ, उपासनागृह, अग्निकुड-युक्त शालाएँ, भाडारगृह, एकांत कोठरियाँ, दाछान, ठहलते हुए ध्यान करने के लिए छालाएँ, कूप, कपछद,




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