उपलब्ध सटटकों का आलोचनात्मक अध्ययन | Uplabdha Sattako Ka Aalochanatmak Adhyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1.1 उपरूपक क्या हैं? रूपक रसश्रित होते हैं, किन्तु उपरुूपक भावाश्रित हैं। जहाँ काव्य में मुनि गुरू, राजा अथवा पुत्रविषयक रति का संत्रह होता है तो उसे भाव की संज्ञा दी जाती है।” भाव में भी रति आदि स्थायी भाव होते है, किन्तु ये उद्भूत होकर पूर्ण रूप से रस की कोटि तक नही पहुँच पाते हैं। इसके कारण ही रूपकों के अवर कोटि को उपरूपक कहा गया । उपरूपकों में नृत्य की प्रधानता रहती है । इनमें रूपकों की भांति वाक्यार्थाभिनय नहीं होता है, बल्कि प्रतिपद अभिनय होता है, जिसे पदार्थाभिनय कहते है।* रूपक जहाँ धनिकों, राजाओं और विद्वानों आदि के अभिनय की वस्तु थे, वही उपरूपक जनसामान्य के लिए लिखे एवं मन्वित हुए। इसमें प्रायः सामान्य जनों की ही भाषा और रीति रिवाज थे एवं उनके मंचन के लिए सामान्य जन अपने गृह सामग्री का ही प्रयोग करते थे। इनके वस्तु , नेता एवं रस के आधार पर कई भेद होते है। ” कि भ) पो शक भि भिकः चकि भमि पमाः जि भ भो जोर भोः पः भिः भे च भो जता) भमः भम, ऋ) [1 रतिर्देवादिविषया व्याभिचा री तथान्जितः। भावः प्रोक्तः।। (सूत्र 48) काव्यप्रकाश चतुथा 2. भरत एवं भारतीय नाट्य कल्ला- सुरेन्द्र नाथदीक्षित पृ0सं0 120 3. वस्तु नेता रसः तेषां भेदकः - दशरूपक प्रथम अध्याय




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