त्याग - पत्र | Tyag Patra

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Tyag Patra  by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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त्वामव ११. 2 5 रशा है । वह मेरे सामनेसे होकर अपने कमरेमे चली गई। जाते जाते द्वारपर रुकीं और जोरसे पने हाथके बेतको दालानमें फेक दिया । बेंत मेरे पास छाकर गिर गया ) मेरी कुछ भी समझमें न श्रा रहा था | में सकपकाया-सा खड़ा था । थोड़ी देर बाद में साहसपूर्वक उस कोठरीमें गया। देखता क्या हूँ कि वहाँ बुझा आंधी हुई पड़ी हैं । उनकी साड़ी इधर उधर हो गई है श्रौर बदनका कपड़ा बेहद मारसे सीना हो गया है । जगह-जगह नील उभर श्रांय हैं । कहीं- कहीं लद्र मी छलक श्राया है । बुझा गुम-सुम पड़ी हैं । न रोती है, न सुवकती है । बाल निखरे है श्रौर धरर्तापर पढ़ी दोनो बोपर माथा टिका है । मुमे वहीँ थोड़ी देर खड़ा रहना भी असह्य हो गया । सुमते कद्ध भी नदीं बोला गया । बुझाके गलेसे लगकर मैं वहाँ थोड़ा रे लेता तो ठीक होता | पर वह संभव न हुआ | मैं दबे पाँव लोट आया । वह दिन था कि फिर बुझाकी हँसी मैने नही देखी । इसके पौंच-छुद्द मद्दीने बाद बुझाका ब्याह हो गया । मेँनि जल्दी-जल्दी तत्परताके साथ सब व्यवस्था कर दी । बुझाका: उसी दिनसे पढ़ना छूट गया था । वह उस दिनसे सीने-पिरोने,. काइने-बुद्दारने और इसी तरहके और कामोंमें शांत भावसे लगी रहती थीं । काम करते रहनेके अतिरिक्त उन्हे श्योर किसी बातसे मतलब न था । न किसीकी निगाहर्मे पड़ना चाहती थीं । कपड़ा कोई घोनीका घुला नया पहनतीं तो उदे जल्दी मेला भी कर लेती थी । मुस वह तब बची-बची




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