रीतिकाव्य की भूमिका | Reetikavya Ki Bhumika

Riteekavya Ki Bhumika by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ शह श्रालम के बाद अकबर शाह द्वितीय गद्दी पर बेठा। उसके समय 'में लखनऊ के नवावों को बादशाह को उपाधि प्राप्त हुई, थगरेजो ने उन्हे बादशाह स्वीकार किया! यह्‌ स्थिति भी बहुत दिनो ' तक न रद्दी । श्रंगरेजों ने बंगाल के बाद बनारस इलाहाबाद श्र श्रवघ पर श्रधिकार कर लिया-- प्रौर फिर कुद समय में ही नामशेष सुराल राज्य श्रंत कर सारे उत्तरी हिन्दु- स्तान पर अपना राज्य स्थापित कर लिया । इसो समय के एक पत्न से गवर्नर जनरल पलेन क ने रेजीडेन्ट टामस मेटकाफ को लिखा था--''बादशाद की उपरी शानो-शौकत का श्ट'गार उतर चुका है! उसके वेभव को पहिली-सी चमक-दमक नहीं रही, इसलिये कलम के एक -डीवे मे बादशाह की उपाधि का श्रन्व कर देना छदं भी कठिन नहीं हे इस युग मे दूसरे हिन्दू प्रदेशों की भी लगभग यही दशा थी जो दिल्‍ली राज्य की थी । हिन्दीं के रीतिकाब्य का सृजन और पोषण जिन प्रातो में हुआ--अवे दें अवध, डु'ढेलखर्ड श्रौर राजस्थान । श्रवघ की राजनीतिक परिस्थितियों का उल्लेख सुऱल-साम्राज्य के प्रसंग में ऊपर दो ही शुका है। राजस्थान में इस समय्र सुख्य चार राजवंश थे--झम्बेर के कछवाहे; मेवाड़ के शिशोदिया, मारवाड के राठौर श्रौर कोटावृदी के हाडा । राजस्थान का इतिहास भी इस समय पतन का इतिहास दहै । इसका स्पष्ट प्रमाण यहद कि 'मुग़ल साम्राज्य के इस विनाशकाल मे भीये लोग श्रपनी शक्तियो को संचधित और “एकन कर हिन्दू प्रस्व स्थापितन कर पाये ।.. श्रौर, करते मी केसे राजपूतो की अनादि -काल' से चली' आई हुई फूट इस समय तौ रौर भी जोरो पर थी। बहुपत्नीक राजपूत राजाय़ो के रनिवासो में मुराल हदरमो की तरह श्रान्तरिक कलह श्र, ई््या का नग्न चूत्य होता था-एक एक राजा की कई विवाहित रानिंयाँ श्ौर श्रनेक रक्तिताये होती थी अहंकार इन राजपूतों में इतना भयंक्र था कि उर्सके सर्म्मुख कोई भी' '्मादशे, कोई भी सम्बन्ध नहीं टिक सकता था | पिता-पुत्र मे श्रधिकारं के लिये ` युद्ध होना यहां भी मामूली बत थी । श्रगर दिल्‍ली का औरंगजेब! पिता को केद कर सकता था, तो मारवाड का श्मरसिह.) पने पिता८-की हत्या भी कर सकता था । मेवाड मे चर्डावुत श्रौर शक्ताव वंशे में भयंकर्‌ युदःकलद थी जिससे भे्राड कौ सम्पूणं शक्ति जजेर्‌ हो गदे थी । स्मजह्थान में -पूणेतः ,सामन्तीय शासन था--जिसमे सब कुछ शासक के दयक्तित्व ,पर ही निर्भर रददता था । राजा का व्यक्तित्व ही शासनचक्र को धुरी था--उसमे. शिथिलता. श्राजाने से सम्पू् ज्यवस्था का दिन्नभिन्न हो जाना स्वाभाविक था । व्यक्ति की यह प्रनता एक शोर राजपूतों मे स्वासिभक्ति, देश-प्रम, जाति श्रौर धर्स के प्रति प्रगाढ स्था जेखे




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