कन्नड साहित्य का बृहद इतिहास | Kannad Sahitya Ka Brihad Itihas

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Kannad Sahitya Ka Brihad Itihas  by श्यामराव - Shyamrav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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15 : आधार पर देताः अनुमान सैँंसीचीन ही लगता हैं कि इस कति से पूर्व 'रामाधण की . . रचना हुई होगी 1 कन्नड भाषा की श्राचीनंता को प्रमाशित करने के लिंएं कविराज मार्ग के अतिरिक्त आर भी कई संत मिलेंगे । भट्टाकलंक (ई० सन्‌ 1604) नामक वैयाकरणी ने तथा (ई० सन्‌ 1838) 'देवचन्द्र नामक कवि ने अपनी-अपनी कतियों में एक' तुंबद्धरा- चाय का नामोल्लेखं' कियां है और बताया है कि उन आचाय भवर ने चूडामणि नामक (व्याख्यान) व्याल्या-परन्य क्री रवना की थी । भट्टाकलंक ने इस प्रन्ध के आकार को 96,000 पद्यों का बताया है तो देवचन्द्र ने इसे 84,000 का बताया. है । इस ग्रन्थ की पद्य-संख्या दोर्नो में से चाहे किसी को मान लें--इसमें शक नहीं कि तुंवछूरा- चाये कां ग्रन्थ चूडामणि पर्याप्त मात्रा में बड़ा विपुल न्थ है! आचायं प्रवर ““तुबढू राचार्म” ईऽ स० सातवीं सदी मँ रहे । व्याख्या ग्रन्थ जैसी शास्वीम कति का . निर्माण यदि ई० स० सातवीं संदी में हुई हो तो यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि इस भाषा में इस ग्रस्थ के निर्माण के पहले कम से कम दो-एक सदियों से कन्नड में साहित्य का निर्माण हुआ था । तुंबद्धराचार्य के समकालीन “श्यामकुंदाचार्ये' ने कननड़ में “प्राभुत'” की रचना की--ऐसा कहा जाता है । गंगराजा “'सैगोट्र शिव- भार” ने जो, ई० स० आठवीं सदी में रहे, “गजाष्टक” नामक प्रत्थ की रचना की थी जो बहुत अनंप्रिय था । यह बात कुछ उस समय के शिलालेखों से स्पष्ट होती है । जिस समय कबविरांज मार्ग का प्रणयन हुआ उसी समय के आस-पास “शुणगोंकियं' नामक छन्दशास्त्र सम्बन्धी श्रन्थ की रचना कन्नड मे हुईं थी-एेसा तमिद्‌ भाषाके एक छन्दभास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थ से विदित हौतां है । कविराज माग के प्रणयन-समय के ही आस-पास “अमस गृणनन्दी” नामक दो महाकवि हौ चुके थे--ऐसा प्रतीत होता है । बाद के कवि पोन्न, दुर्गसिंह भौर नयसेन , आदि ने इन पुरे कवियों की प्रशंसा की है । व्याकरण शास्त्री केशिराज मे इन पूर्व कवियों की कृतियों को अपनी कृति में परिभाषा-उदाहरणों के रूप में उद्धुत किया है । अगस नामक कवि के “'वर्घमान चरित” नामक संस्कृत ग्रन्थ से णर्‌ तो स्पष्ट होता है कि बहु ई० स० 854 में रहे, साथ ही उसी वधमान चरित के इस वाक्य, “श्री अगस भूप कृते वधेसान चरिते”--झे ऐसा अनुमान भी किया जा' सकता है कि वह राजा भी रहे होंगे । “गुणनन्दि” के नाम का उल्लेख तो भट्टाकलंक ने बहुत श्रद्धा और भक्ति के साथ “भगवान्‌ गुणनन्द्ि”. कहकर उद्धस किसा है । परन्तु उनका कोई अन्य उपलब्ध नहीं \ श्रवण बेरमो के एक प्रस्तर-लेखं मे उल्लिखित “युणनन्दि “ की प्रशस्ति के आधार पर “कन्नड साहित्य रिते के लेखक श्री सुवछी से पु० सं» '47 में लिखते हुए यह भनुमान लगाया है कि यह आदि कवि पस्प के मुरु देवेन्द्र सैड्धान्तिक के मु रहे होंगे और ई० स० 900 में हुए होंगे 1 केशिराज ने “रक” के स्थान पर रेफंगुक्तहित्व के प्रयोग सम्बन्धी नियमों के उदाहरण के. तौर पर गुणनन्दि के एक पथ्य का उद्धरण दिया है-- | '. “चुचिदवाँलू विसिलठरं कि ` | भुद्धिचिद . तच्छिरेत नौन्दु । ः {वैज धूप के व्याप्त होने से या सूर्य की प्रखर फ़िरणों के चुभने के कारण मुररंझामे




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