समयसारनाटकभाषा | Samaysarnatakbhasa

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Samaysarnatakbhasa  by पं. बनारसीदास - Pandit Banarsidas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ ) भेदनज्ञान महारुचिको निधान, उरको उजारो भारो न्याये ५ 8 द #*५, क श, क (क दुंद दलक्षौ ॥ याते भिर रहे अनुभो विलास गहे फिरि वहो, अपनपो न कहे पुदूगलसों । यहे करतृतियों जुदाई करे जगतत, पावकज्यों भिन्न करे कचन उपलसो ॥७४॥ सवेया इकतासाः-वानारसी कहे भेया भव्य सनो मेरी शीख, के भांति केसे के एेसो काज कीजिए । एकहू मुहूरत मिभ्यातको विध्वंस होड, ज्ञानको जगाइ अस हसं = ८ _ १. = ¢ = + न _च्ड खोजि खीजिये ॥ बाहीको बिचार वाको ध्यानयहे कोतुहर, याही भरि जनम परम रस पाजिए । तजो भक्वासकी विलास सविकासरूप, अंतकारि मोहको अनंनकाल जीजिए॥ सतरेया इकतीसा-जाकी देहदुतिसों दसो दिशा पविन्न श क ७, ऋ. क = ५. ७ क भई, जाके तेज आगे सव तेजवत स्के हें । जाको सूप राखि थित महारूपवत, जाकी वपुवासरसो सुतास ओर लुके हें ॥ जाकी दिव्य धुनी सुनि श्रवनकों सुख होत, कर खा नि जन: ४५ ई जाके तन छक्तन अनेक आइ दके हे । तेह जिनराज जाके कहे विवहार गुन, निहचे निरम्ि सुद्धचतनसों चुकेहं ॥७६॥ सवेया इ कती सा--जामें वाल पनों तरुन पनो चूद्धपनो ना हिं, आयु परजत महा रूप महा वल हे । घिनाहि जनत जाके तनमें अनेक गुन;अतिस पिराजमान काया निरभलहे ॥ जस विनुपवन समद्र अविचलरूप, तैसे जाकोा मन अर आसन अचल हे । सो जिनराज जयवेत होड जगत मे, जाकी य॒ भगति महा सुकृति को फलं हे ॥ ७७ ॥ क (५ ($ क अ (र , ० दोहा--जिनपद नाहिं शुरीरकों,जिन पद चेतन माहि । जिन वनन कन्टु ओर हे, यहजिन वनननांहि ॥ ७८ ॥




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