श्री कृष्णामृतं | shree krishanamratam

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shree  krishanamratam  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रीमत्परमर्हसामृतानन्दगिरि विरचितम्‌ । ध. मत लग जाय किसीसों जियरादा इ दहं यह कैसा रोग ॥ धर वेचेनी' छन्य दिखे है योगलिये भी दूनों ताप । वन जायें तो: रोरोकाटें तडफतहें जहिं वसते लोग ॥ नदिं मरना नहिं जीना मावे, सकल उपाय व्यर्थं हीं होत । वैद्य सहाय न यामे कोई, विष छागे सव जगके भोग ॥ रेन दिवस इक समहीं वीते, कते काको श्चुत्‌ तट नींद । आत्मविया विना बुलाये, आवत चरे न कड उद्योग ॥ मिं प्राणपति दूनो दोवे, तासां हे वियोग अधिकान । अस्त या पिमा न कोहं है नहि होग ।॥२३॥ हा ज्ञान प्रेम उन्माद करद ऊच नीच कं चाल ॥ अगत बुरा न मानियें मनकी माषे वार ॥ २४ ॥ श्रुति-जग-नियम न रदसकैः रदे न मतिका रोग ॥ प्रेम जां सुख पगधरे जानत प्रेमी लोग ॥ २५ ॥ छद्‌ । हाइ कहें अब भला कवनसों कैसे सोच करो । लखो निहारों तनिक कहो जी दूरी कठिन जरो ॥ क्या जानें को हेतु ददीलो कठिन छुकठिन परा है । अब जौजो मम नयन आप्रेसों भीजत नादिं गरो ॥ च्या रुखनो यदह रो रहो दढ अमर हं अमर भयो दे । छखिये निजखभाव जिहिं अवरं दाग न कबहु परो ॥ जौ लखहो यद पापिन पापी जरे न मरे न जावि । तौ किर वेदकथित कव जैहै खदुखभावक्षगरो ॥ सुनिये दै अव कान प्राण मस प्ेमभरे दिरदेके । अग्रत पक्ष न रघु बुध साक्षी निगम इं पश्च भरो ॥ २६॥ कवतक डरे श्रदल-प्रसतासा कबतक दरद्‌ सहं । लखो न रखते भी जव हम किम नहिं दुखसिन्धु वदं ॥




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