भट्टिकाव्य का साहित्यशास्त्र की दृष्टि से आलोचनात्मक अध्ययन | Bhatti Kabya Ka Sahitya Shatra Ki Dristhi Se Alochanatmak Adhyayan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
55 MB
कुल पष्ठ :
374
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रथम अध्याय (२)
इस प्रकार साहित्य शब्द का संकुचित प्रयोग काव्य तथाः नाटकं आदि के लिए होता है ¡ आर्चाय वित्हण
ने काव्य रूपी अमृत को साहित्य-समुद्र कं मन्थन से उत्पन्न होने वाला बतलाया है ।* आजकल अंग्रेजी
भाषा में प्रयुक्तं “लिट्रेचर' शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में भी होने लगा है |
संस्कृत साहित्य -
संस्कृत साहित्य प्रत्येक दृष्टि से बेजोड़ हे | प्राचीनता की दृष्टिसे दही देखा जाए तो लोकमान्य बाल
गंगाधर तिलक के अनुसार ऋग्वेद के अनेक सूक्तं की रचना विक्रम से कम से कम छः हजार वर्ष पूर्व हुई
है इनके अनुसार संस्कृत साहित्य का सर्वप्रथम ग्रन्थ लगभग आठ हजार वर्ष प्राचीन है | तब से साहित्य की
यह धारा अबाध गति से निरन्तर प्रवाहित होती चली आ रही है । संस्कृत साहित्य मे मानव जीवन के प्रत्येक
पक्ष पर विचार प्रस्तुत किया गया हे | संस्कृत साहित्य प्राचीनता, सर्वाङ्गीणता, धार्मिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक तथा कला की दृष्टि से विशेष महत्व रखता है |
संस्कृत साहित्य के दो रूप हैं - १. वैदिक साहित्य, २. लौकिक साहित्य |
१. वैदिक साहित्य ~
वैदिक साहित्य में संहिता तथा ब्राह्मणों की रचना हुई है । वैदिक साहित्य दैवी साहित्य है । वैदिक
साहित्य धर्म प्रधान साहित्य है । याग कर्म, देवताओं की स्तुतियाँ, उपनिषद् इत्यादि इसी साहित्य के अन्तर्गत
आते हैं वैदिक साहित्य की भाषा पाणिनीय व्याकरण के नपे तुले नियमों से जकड़ी हुई नहीं थी |
२. लौकिक साहित्य ~ ¦
वैदिक साहित्य के अनन्तर लौकिक साहित्य का निरन्तर उदय होता गया | संस्कृत साहित्य रामायण,
महाभारत, पुराण और समय-समय पर अन्य ग्रन्थों को लेकर उपनिषदों व वेदां कं गंभीर चिंतन कं निश्चित
मानदण्डों का हाथ पकड़कर हमारे सामने प्रविष्ट होता है | कालिदास से लेकर जयदेव तक इस अखण्ड
परम्परा का निर्वाह मिलता है |
वैदिक साहित्य एवं लौकिक साहित्य मे अन्तर ~
वैदिक साहित्य में जौँ याग कर्मो, सामगानां की प्रधानता है, वहीं लौकिक साहित्य का प्रसार प्रत्येक दिशा
¦ १, “साहित्य-पयोनिधि-मन्थनोत्थं काव्यामृतं रक्षत हे कवीन्द्राः |
यदस्य दैत्या इव लुण्ठनाय काव्यार्थचौराः प्रगुणीभवन्ति ।|
महाकवि विल्हण विरचितम् 'विक्रमाङकदेवचरितम् महाकाव्य' प्रथम सर्ग श्लोकं सं० ११
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