भारतीय प्रेमाख्यान काव्य | Bhartiya Premakhyan Kavya

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Bhartiya Premakhyan Kavya by हरिकांत श्रीवास्तव - Harikant Srivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(८२०५ ) संसार की प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व ही निरमूख हो जाता हैं, यददी कारण है कि सूरतेन को कुछ भी नहीं भाता था । ध्न न माया न चिवान चैनं न सुद्ध॑ न वुद्ध नवियान वैनं ॥ न चाल न ख्याठं न खान न पानं न चतं न हेतं न अस्नानं न दानं ॥ कने का तात्य यह दै कि हमे पुहुकरके वियोगमे क्लप और हृदयपश्ष दौनों का सामंजस्य दिखाई पडता है 1 भाषा रसरतन की मापा 'वढती हुई अवधी है किन्तु कद्दीं कही संस्कृत के तत्सम शब्दों के पुर से बह बहुत परिमार्जित हो गई है । जैसे-- ५सगुण रूप निगरण निरूप वहु गुन विस्तारन 1 अधिनासी अवगत अनादि अव अटक निवारन 1 घट-घट प्रगट प्रसिद्ध गुप्त निरलेख निरञ्जन ।1 सेना के संचाठन एवं युद्ध के वर्णन में कवि ने भाषा में डिंगल का पुट देकर उते योजखिनी ना दिवा दै! “पय पताल उच्छयिय रेन अम्बर है हभिय ! दिग-दरिग्गज थरहरिय दिव दिनकर रथ खिधिय 1 फल-फनिन्द्‌ फरदरिय सप्र सदर जट सुक्खिय । दत पति गज पृरि चूरि पव्वय पिसांन क्रिय ॥ मनुखवान्त भापा लिखने की परिपाठी को भी कवि ने अपनाया है। “नमा देवां दिवानाथ सूरं। महां तेज सोम॑ं तिहूँ ठोक रूप॑ ॥ डदै जासु दीसं भरदीसं भका । हियो कोफ सॉंकं तमं जासु नासे |”? छ्न्द इस काव्य का प्रणयन दोहा भौर 'वीपाई की दली में हुआ है किन्तु इस छन्द के अतिरिक्त छप्पय, सोमकाति, घटक साखूल, न्नोटक, पद्धरि, भुजड्डी, सोरठा, कवित्त, मोतीदाम, माठ्ती, भुजद्ट प्रयात, प्रवनिका, डुमिठा और सबैया छन्दो का प्रयोग भी बहुतायत से क्या गया है । अलङ्कार इस कवि ने उपमा, उठोक्षा और अतिशयोक्ति अल्ड्टार ही अधिक मयुक्त किए हैं | छोकपक्ष जहाँ दमे इख कल्य मे संदोग वियोग की नाना दुद्याओं का चिनथ मिल्वा है, बद्दों हमे गाहंस्थिक जीवन को सुन्दर और सफल बनाने की शिक्षा प्राप्त हाती है ।




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