हलवासिया स्मृति - ग्रन्थ | Halvasiya Smarti Granth

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Book Image : हलवासिया स्मृति - ग्रन्थ - Halvasiya Smarti Granth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कविता की ओर जना को, वाग्भट ने दोपरहित णव्द को, जयदेव ने रसमयी शब्द-योजना को, विश्वनाथ ने रसात्मक वाक्य को भौर पण्डितराज जगन्नाय ने रस से पूर्ण सर्थ-वर्णन को कान्य माना। कान्य की इस नाना दुष्टिमयी विवेचना में तीन तत्त्व निहित ज्ञात होते है -- १, रस की अनिर्वचनीय अलौकिक भाव-भूमि । २ शब्द और अर्थ का लखित युग्म । ३ चमत्कार उत्पन्न करने वाली व्यञ्जना । यह कहा जा सकता है कि अनुभूति के स्तर पर शब्द ओर अथं का तादात्म्य उपस्थित होने पर ही रस को निष्पत्ति होती ह । जिस अनुपात मे यह्‌ तदालम्य होगा, उसी अनुपात में रस-जनित आनन्द की सृष्टि होगी, कठिनाई केवल तादात्म्य उपस्थित करने में हं ! यह्‌ स्पष्ट ह कि अनुमृति-जगत्‌ इतना विस्तृत है कि उसकी अभिव्यक्ति कभी शब्द द्वारा हो सकेगी, इसमें सन्देह है । मन की गति जितनी शीघ्रतासे अर्थके विराट्‌ विद्वमे प्रवेश करती है, उतनी शीघ्रता से भाषा अपना स्थूल उपादान प्रस्तुत नहीं कर सकती । इस समस्या का अनु- भव करते हुए मैंने एक स्थान पर लिखा था प्रेम की इस अर्नि से, क्यो घूम-सी उठ्ती निराशा ? क्यो हृदय की भावना को, मिरु सकी भव तक न भापा। मतर्ज॑गत्‌ अपनी सम्पूर्णं परिधि शब्दो हारा व्यक्त नही कर सकता । भावनाएं अपनी गहराई मे अथाह है मौर शब्द किनारे पर र्वे हुए पथिक हैं जो केवल लहरें गिनना जानते हैं। जिस साधक में अपने शब्दों को भर्थ में डुवाने की जितनी अधिक सहज क्षमता होगी उतनी ही गहरी रसानृभूति काव्य के माध्यम से हो सकेगी ।




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