हिंदी गद्य का क्रमिक विकास | Hindi Gadya Ka Kramik Vikas

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Hindi Gadya Ka Kramik Vikas by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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{ भूमिका १७. ` रिदी केवल उख खण्ड की भाषा को कह सकते है जिते प्राचीन कलि में सध्य देश श्रथवा ्रन्त्वेद कते थे । श्रतः यदि च्रागरा को ददी का केन्द्र मानें तो उत्तर मे हिमालय की तराई तक श्यौर द्चिण मे नमैदा की घाटी तक, पूर्वै कानपुर तक छोर पश्चिम मे दिल्ली के भी श्रगितकदिन्दीका च्तेन्न साना माना जाता है । इसके पश्चिम में पंजाबी ओर राजस्थानी चोली जाती हैं और पूर्व में पूर्वी हिन्दी । कुछ लोग हिन्दी केदो भेद मानते हैं-पश्चिमी हिन्दी रौर पूर्वी दिदौ । पर छाघुनिक विद्वान्‌ पश्चिमी हिन्दी को ही दिदी कहना हिंदी शास्त्रीय समसते हैं । अत; भापा-वैज्ञानिक विवेचन में पूर्वी हिन्दी भी ष्िदी' से प्रथक्‌ भाषा मानी जाती है । ऐतिहासिक दृष्टि से भी देख तो हिन्दी शौरसेनी की वंशज है रौर पूर्वी हिन्दी श्धे- मागघी की । इसी से प्रियसंन, चैटजीं श्रादि ने हिन्दी शब्द्‌ का पश्चिमी हिन्दीकेदी रथे मे व्यवहार कियाद श्रौर व्रज कञ्नौजी, बुदेली बाँगरू 'और खडी बोली ( हिन्दुस्तानी ) को ही हिन्दी की विभाषा माना है--अवधी, छत्तीसगदी आदि को नहीं । झभी हिन्दी लेखकों के श्रतिरिक्त अगरेनी लेखक भी हिन्दी शब्द्‌ का मनचाहा अथै किया करते है इससे भाषा- विज्ञान के विद्यार्थी को हिन्दी शब्द फे (१) मूल शब्दाधै, (२) प्रचलित चौर सादित्यिक श्रै, तथा (३) शाल्लीय अर्धं &पश्चिमी हिन्दी के बोलने वालों कौ संख्या केवल ४ करोड़, १२ लाख है ।




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