बाहु - वली | Bahu - Bali
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
50
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वृषभवेराम्य
वृषु-भेश देखते थे त्नी, इस शोर प्रकृति के प्रांगण में ।
अभिराम भाव शत प्रत्रिबिस्वित, होते आदश-सहझ मन में ॥
बढ़ चलने भाव घन-पुंज हुए बन गया बह अचल स्थायिभाव ।
उछुसित हुए मन मेँ शतशः, दृषभेश दीन वेभव-प्रभाव ॥।
उपवन मे देखा जा बसन्त, मलयानिल कलिय से बोला ।
खोलो धुंषट-पट देखो तो, सुषमा ते बदला नव चोला ॥
कोकिल बोलीं प्रति पल्लच पर, दी धीरे ताल पवनने थी।
हो गया समोरण मन्तहृद्, आशा जागी मिलने को थी॥
शत शत रसाल्ल, शत नीप, लता, सव मे समानता आहं थी ।
माधव में था गत निज विवेक, मादकता सवम छाई थी ॥।
पुष्पों की राजि निहार रही, थी लगा दृष्टि नम ओर अचल--
उस विधि को जिसने उसको दी, बह् दान-हेतु निधि सुरभि विमलञ॥
वृक्षाभित दोला पवनेरित. अयो भूल रदा युवती मंडल !
बल्ली-त्रितान था जा रहा, नभ ओर यान लखकर अंचल ॥
युबरतीं मदमातीं चलती थी, युवकों का मन था रीक रद्द ।
उनके अंगों की सौरभ से, था, मलय-पृवन तव खीज रद्वा ॥
था पूर्योदय पर सुयमुखी, थी, मुरभाई लख चन्द्रोदय ।
इसक्िए शनैः करताडनसे, बदल्ला ज्ञेता जाता था वह ॥
माधग्रीलवा थी अतिकंपित, थी श्राम्नलता भी शरमीन्ली।
वेला वेक्ञा मे लजा रही, थी चंपा बेवारी पील्नी॥
नलिनी नीली पढ़ गई देख, उनके कंजों में नयन-युगल ।
मेचकित मसण, जिनसे सुंदर, दरिणी के द्ारे नयन-चपल् ॥|
मधुकर मनर बह टश्य देख, कविता करते सण-कण॒ पंदर ।
प्रतिपद् सुम्नो से ज्ञे पराग, मूखरिव्र करते नव गीत मधुर ॥
पाच
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