छायावाद और वैदिक - दर्शन | Chayavad Aur Vedik Darshan

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Chayavad Aur Vedik Darshan by प्रेमप्रकाश रस्तोगी - Premprakash Rastogi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्प छायावाद अर वैदिकदर्शन ५ इस प्रवन्ध में € श्रष्याय हैं । प्रथम भ्रव्याय विषयप्रवेश से सम्बद्ध है जिसमे चैंदिक-साहित्य की श्रेष्ठता एवं महत्ता का उल्लेख करते हुए प्राचीन एवं श्रर्वाचीन- साहित्य पर उसके प्रभाव की दिशा की आ्रोर संकेत किया गया है, तथा यह स्थापना सी की गई है कि छायावादी कवियों पर भी यह प्रभाव विद्यमान है । द्वितीय प्रध्याय में वैदिक साहित्य का वर्गीकृत झष्ययन प्रस्तुत किया गया है जिसमें वेद एवं . उपनिपदों पर तनिक्ष विस्तार से चर्चा की गई है, क्योंकि ये ही ग्रंथ भारतीय सांस्कृ- तिक जीवन के विकास के प्रमुख स्रोत माने जाते रहे हैं । तृतीय अध्याय में वैदिक- दर्शन के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है तथा परवर्ती दार्शनिक मतवाद से वैदिक- वाझमय में आए विचारो एवं सिद्धान्तो का अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि इस साहित्य में दर्शन का वैसा तर्कसम्मत एवं व्यवस्थित रूप देखने को नहीं मिलता जैसा परवर्ती षड्दशंनो में उपलब्ध होता है वेद एवं उपनिषद्‌ मुख्यतया “श्रुति हैं जिनमें श्रनेक रहस्यात्मक श्रनुभ्रुतियाँ एवं दार्शनिक विचारों का उल्लेख है जिन्हें वैदिक ऋषियों ने अपने प्रज्ञा-चक्षुओों से समय-समय पर समाधि-श्रवस्था में प्राप्त किया था । इसीलिए उस समस्त सामग्री को, जो इस प्वन्घ के तुतीय झध्याय में दी गई है, संग्रहीत करने के लिए श्रनेक वैदिक-संस्कृत ग्रन्थो तथा पौवत्यि एवं पाश्चात्य विद्धानों के तत्सम्वन्धी अनेक आलोचना-ग्रन्यों का मन्थन करना पड़ा जिनका उल्लेख यथास्थानं कर दिया गया है 1 इस सन्दर्भ मे विश्वेश्वरानन्द वैदिक अनुसंधान संस्थान, होशियारपुर (पंजाव) के संचालक श्वदधेय विश्ववन्धु शास्त्री का विशेष ्राभारी हं जिन्होने मुभे वैदिक-द्शन के प्रारम्भिक स्वरूप से सम्बन्वित आवश्यक जानकारी देने तथा तत्सम्बन्धी सामग्री जुटाने मँ पर्याप्त सहयोगं प्रदान किया । . १ इस प्रबन्ध के चतुर्थ अध्याय में दैदिक-साहित्य की पीठिका पर श्राघुविक युग में हुए सांस्कृतिक पुनर्जागरण से सम्बन्धित झव्ययन प्रस्तुत किया गया है ! सगे पंचम से अष्टम तक जार श्रष्यायों में वैदिक वाऊमय में वर्णित मान्यताओं रवं धारणाग्रों की सपिक्षता मे क्रमशः प्रसाद, निराला, सुमित्रानन्दन पेत तथा महा- देवी वर्मा के काव्य-साहित्य के विचार एवं. चिन्तन-पक्ष का. समीक्षात्मक शझव्ययन स्तुत किया गया है, जो इस शोध-प्रवन्ध का मुख्य विपय है । अन्तिम अध्याय मे निष्कष-रूप में हमने उन सभी उपलब्धियों की ओर संकेत किया है जो वेदिक- चाडमय की दार्शनिक विचारधारा के.प्रकाश में हमें अपने इन आलोच्य कवियोके काव्य-साहित्य के अरघ्ययत कै फलस्वरूप प्राप्त हुई हैं । इस प्रवन्च में यव-तत्र पुनरु- क्ियाँ हो गई हैं जो विपय कौ एकरत्तता तया एकरूपता के कारण स्वाभा- बिक थीं झतएव सर्पणीय भी हैं 1 - ः यहाँ मैं उन गुरुजनों तथा विद्वदुनवर्ग के प्रति कृतज्ञता भरकाडन के सराय श्रपनी वात समाप्त करता हूँ जिनसे सुक्के शोध-प्रवन्ब को पूरा करने में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष स्प चे सहायता मिनी है । इस दृष्टि से सनातन घमं कालिज, मुजफ्फरनगर के




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