ऋग्वेद का सुबोध भाष्य मधुच्छन्दा ऋषि का दर्शन | Rigved ka Subodh Bhashya Madhuchchhanda Rishi ka Darshan
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
43 MB
कुल पष्ठ :
743
श्रेणी :
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No Information available about श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६० ६, मं० १-३५; सू० ४, सं०् १-१० 1
'चघीकाश्चर्थ चुद्धि मोर कमे है बुद्धिते जो उत्तम कमं
दोते है उनसे नाना प्रकारके घन देनेवारी यदी विद्याहे,
( सूदूतानां चोद्यित्री ) सत्यसे बननेवाले विशेष महत्व-
पूर्ण कर्मोकी प्रेरणा करनेवादी यदह विद्या है, ( सुमदीनां
चेठन्ती ) शुभ मतियोंको चैतना यदी देती हे, यह विद्या
( केतुना ) ज्ञानका प्रषठार करनेके कारण (महो णेः
प्रचेतयति ) कर्मके बडे मदासागरको सानीके सामने चुरा
कर देती दै । हानसे नाना प्रकारके कमं करनेके म्म मनुष्य
दूचता अश्विनो, इन्द्र
ह
ङ.
(१३ )
के सम्मुख खुले द्ोते हैं । जितना ज्ञान बढ़ेगा उतने नानां
प्रकारके कमं करनेदो शक्ति मो मनुष्यकी बढती जायगी
लोर यही मनुप्यके सुखोंको वढानेनारी होगी ¦ मानवोँकी
सच प्रकारकी बुद्धियोपर इसी विद्याका राज्य हे। चिद्यासे
ही सभी मानवोंकी सब प्रकारकी बुद्धियोंका तेज बढ सकता
है | मानवी चुद्धियोंपर विद्याका ही साम्राज्य है ।
यद्द विद्याका उत्तम सूक्त दे भौर इसका जितना मनन
किया जाय, उतना वद्द भघिक वोधघप्रद द्दोनेवाला है ।
विवि
(२) द्वितीयोऽनुवाकः
इन्द्रः
({ १-१० ) मधुच्छन्दा चेश्वामित्र। । इन्द्र: । गायत्री 1
खुरूपरुत्चुमुतये खुदुघामिव गो दु्दे
जुहमसि यविद्यवि ॥ १ ॥
उप नः सचना गदि सोमस्य सोमपाः पिव ।
, गोदा इद्रेवतो मदः ॥२॥
अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम्)
मानो अतिख्य था गहि॥३॥
परेहि विग्र भस्दतमिन्द्रं पृच्छ। विपश्चितम् ।
यस्ते सखिभ्य आ वरम् ५४१
उत घुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत ।
दधाना इन्द्र इद् दुवः॥५॥
उत नः सभग अरिवौचेयुदेस रुषएटयः ।
स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि ॥६॥
पमाश्चुमाक्लवे भर यक्नध्ियं नमादनम् ।
पत्तयन् मन्द् यत्सखम् ॥७ 1
अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो ुत्राणामभवः।
प्रावो वाजेषु वाजिनस् ॥८॥
ते त्वा चाजेषु वाजिने वाजयामः शतक्रतो ।
घनानाप्चन्द्र सत्ये १९१
यो रायो रेवनिमषान्त्खुपारः सुन्वतः सखा ;
तस्मा इन्द्राय गायत ॥ १० ॥
अन्वयः- गोहहे सुदुघां हव, यदि दयवि उतत्ये सुरू-
१८'्न जुहूमधि ॥ १7 दहे क्षोसपाः ! नः सवना उप ना-
गदि, प्तोमस्य पिव, रेवतः मदः गोदा ईत् ॥२॥ मथते
लन्तमानां सुमतीनां विद्याम, (स्वं)नः मा भति ख्यः,
शा गहि ॥३॥ परा हदि, यःते सखिभ्यः वरं ला (यच्छ.
हि, ते } विग्रं ्स्तृतं विपश्चितं इन्द्रं एच्छ ॥ ४॥ इन्दे इत्
हुव; दधानः, वन्तु, नः निदः भन्तः चित् उत्त निः
लारत॥५॥ हे द्म | भरिः नः सृमगान् वोचयुः, उत
कटय: ( च वोचेयुः ), इन्द्रस्य शमेणि स्याम इत् ॥ ६ ॥
नाधवे है यज्ञश्रियं, नूमादनं, पतयत् मन्द्यत्सखं भाझुं जा
भर ॥७॥ हे श्नतक्रतो | भ्य पीरवा वृत्राणां घनः भभवः ,
वाजेषु वाजिनं प्र लावः) ८॥ हे शतक्रतो | इन्द्रं {धनानां
सातये वाजेषुतं वाजिनं स्वा वजप्रामः॥९॥ यः रायः
धवनिः, मदानू सुपारः, सुन्वतः सला, तस्मै इन्द्राय
गायत ॥ 3० ॥
अथे ~ मे दोदनके समय जिक्ठ तरह उत्तम दूध देने-
वाकी गौकोदी जुति उष तरह, प्रतिदिन भपनी सुरक्षा
के लिय सुन्दर रूप्रारे इष विश्वके निर्माता ( इन्द्र )
की हम प्रार्थना करते हैं ॥ १ ॥ दे सोमपान करनेवाले
इन्द्र ! इमारे सोमरस चिक्ालनेके समय हमारे पाठ लाघ्ो,
सोमरसका पान करो, ( तुम जसे ) धनवानूका हषं निः-
संदेह गवं देनेवाला दै ॥ २ ॥ तेरे पाली सुमतिर्यो हम
प्राप्त करें, ( तुम ) हसें छोडकर लन्यके समीप प्रकट न
दोनो, इसारे पास ही कानों ॥ ३0 (दे मनुष्य ! ) तू दूर
जा शोर जो तेरे मित्रोिंके लिये श्रेष्ठ घनादि ( देता दे उस )
ज्ञानी, पराजित न हुए कममंप्रवीण इन्द्से पूछ छे शौर (जो
मांगना है वद्द उसे मांग ) ॥ ४ ॥ इन्द्रकी दी उपासना
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