ऋग्वेद का सुबोध भाष्य मधुच्छन्दा ऋषि का दर्शन | Rigved ka Subodh Bhashya Madhuchchhanda Rishi ka Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६० ६, मं० १-३५; सू० ४, सं०् १-१० 1 'चघीकाश्चर्थ चुद्धि मोर कमे है बुद्धिते जो उत्तम कमं दोते है उनसे नाना प्रकारके घन देनेवारी यदी विद्याहे, ( सूदूतानां चोद्यित्री ) सत्यसे बननेवाले विशेष महत्व- पूर्ण कर्मोकी प्रेरणा करनेवादी यदह विद्या है, ( सुमदीनां चेठन्ती ) शुभ मतियोंको चैतना यदी देती हे, यह विद्या ( केतुना ) ज्ञानका प्रषठार करनेके कारण (महो णेः प्रचेतयति ) कर्मके बडे मदासागरको सानीके सामने चुरा कर देती दै । हानसे नाना प्रकारके कमं करनेके म्म मनुष्य दूचता अश्विनो, इन्द्र ह ङ. (१३ ) के सम्मुख खुले द्ोते हैं । जितना ज्ञान बढ़ेगा उतने नानां प्रकारके कमं करनेदो शक्ति मो मनुष्यकी बढती जायगी लोर यही मनुप्यके सुखोंको वढानेनारी होगी ¦ मानवोँकी सच प्रकारकी बुद्धियोपर इसी विद्याका राज्य हे। चिद्यासे ही सभी मानवोंकी सब प्रकारकी बुद्धियोंका तेज बढ सकता है | मानवी चुद्धियोंपर विद्याका ही साम्राज्य है । यद्द विद्याका उत्तम सूक्त दे भौर इसका जितना मनन किया जाय, उतना वद्द भघिक वोधघप्रद द्दोनेवाला है । विवि (२) द्वितीयोऽनुवाकः इन्द्रः ({ १-१० ) मधुच्छन्दा चेश्वामित्र। । इन्द्र: । गायत्री 1 खुरूपरुत्चुमुतये खुदुघामिव गो दु्दे जुहमसि यविद्यवि ॥ १ ॥ उप नः सचना गदि सोमस्य सोमपाः पिव । , गोदा इद्रेवतो मदः ॥२॥ अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम्‌) मानो अतिख्य था गहि॥३॥ परेहि विग्र भस्दतमिन्द्रं पृच्छ। विपश्चितम्‌ । यस्ते सखिभ्य आ वरम्‌ ५४१ उत घुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत । दधाना इन्द्र इद्‌ दुवः॥५॥ उत नः सभग अरिवौचेयुदेस रुषएटयः । स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि ॥६॥ पमाश्चुमाक्लवे भर यक्नध्ियं नमादनम्‌ । पत्तयन्‌ मन्द्‌ यत्सखम्‌ ॥७ 1 अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो ुत्राणामभवः। प्रावो वाजेषु वाजिनस्‌ ॥८॥ ते त्वा चाजेषु वाजिने वाजयामः शतक्रतो । घनानाप्चन्द्र सत्ये १९१ यो रायो रेवनिमषान्त्खुपारः सुन्वतः सखा ; तस्मा इन्द्राय गायत ॥ १० ॥ अन्वयः- गोहहे सुदुघां हव, यदि दयवि उतत्ये सुरू- १८'्न जुहूमधि ॥ १7 दहे क्षोसपाः ! नः सवना उप ना- गदि, प्तोमस्य पिव, रेवतः मदः गोदा ईत्‌ ॥२॥ मथते लन्तमानां सुमतीनां विद्याम, (स्वं)नः मा भति ख्यः, शा गहि ॥३॥ परा हदि, यःते सखिभ्यः वरं ला (यच्छ. हि, ते } विग्रं ्स्तृतं विपश्चितं इन्द्रं एच्छ ॥ ४॥ इन्दे इत्‌ हुव; दधानः, वन्तु, नः निदः भन्तः चित्‌ उत्त निः लारत॥५॥ हे द्म | भरिः नः सृमगान्‌ वोचयुः, उत कटय: ( च वोचेयुः ), इन्द्रस्य शमेणि स्याम इत्‌ ॥ ६ ॥ नाधवे है यज्ञश्रियं, नूमादनं, पतयत्‌ मन्द्यत्सखं भाझुं जा भर ॥७॥ हे श्नतक्रतो | भ्य पीरवा वृत्राणां घनः भभवः , वाजेषु वाजिनं प्र लावः) ८॥ हे शतक्रतो | इन्द्रं {धनानां सातये वाजेषुतं वाजिनं स्वा वजप्रामः॥९॥ यः रायः धवनिः, मदानू सुपारः, सुन्वतः सला, तस्मै इन्द्राय गायत ॥ 3० ॥ अथे ~ मे दोदनके समय जिक्ठ तरह उत्तम दूध देने- वाकी गौकोदी जुति उष तरह, प्रतिदिन भपनी सुरक्षा के लिय सुन्दर रूप्रारे इष विश्वके निर्माता ( इन्द्र ) की हम प्रार्थना करते हैं ॥ १ ॥ दे सोमपान करनेवाले इन्द्र ! इमारे सोमरस चिक्ालनेके समय हमारे पाठ लाघ्ो, सोमरसका पान करो, ( तुम जसे ) धनवानूका हषं निः- संदेह गवं देनेवाला दै ॥ २ ॥ तेरे पाली सुमतिर्यो हम प्राप्त करें, ( तुम ) हसें छोडकर लन्यके समीप प्रकट न दोनो, इसारे पास ही कानों ॥ ३0 (दे मनुष्य ! ) तू दूर जा शोर जो तेरे मित्रोिंके लिये श्रेष्ठ घनादि ( देता दे उस ) ज्ञानी, पराजित न हुए कममंप्रवीण इन्द्से पूछ छे शौर (जो मांगना है वद्द उसे मांग ) ॥ ४ ॥ इन्द्रकी दी उपासना




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