भागवत दर्शन (भाग 84) | Shri Bhagwat Darshan [ Khand - 84 ]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५७) शा जाती थी । वे एकान्त अर्य मे वास करते ये । वे शास्यो का मघ्ययन निष्कामभाय से, अपना धर्मं सममकर कतव्य बुद्धि से परिया करते थे । वे यन्नजनित दोप से उचने की सदा चेष्टा करत ये । सिलोञ्छृतति से, श्रयाचिन्तवृत्ति से श्रथया शिष्यो दवाय लायी हुई मिक्षा से निर्याह करत थे । वे इतने प्रज्ञावान्‌ होते थे, कि उन्दे स्मरण रखने को, पिपयो को जिखना नटी पडता था, सव सुनकर ही धास्णं कर लेते य, इसीलिये वेदो कौ श्रुति कहते हैं । वे वेद्‌ वेदाभो को परम्परा से सुनकर ही स्मरण कर लेते थे देसे -गचाये मायः गरदस्थ होते थे गरस्थ हृष्परिना पुतरस्नदका अनुभव नहीं हो सकता । वे अपने पुनो के समान ही गपने शिग्यो को-परपुत्रो को-प्यार करते थे । वे किसी के अधीन नहीं होते थे, किसी के औार्थिक दुबाय में आकर कभी कोई 'झनुचित कार्य नहीं करते थे । मनुष्य जब निरन्तर '्र्थ के विपय में दूसरों के आश्रित रहता है, तो उसे दाता की उचित अजलुचित सभी घातो को मानना पड़ता हे । स्वार्थ व्यक्ति को 'न्धा बना देता हु । श्राचार्यगण न तो किसी से याचना करते थे, ओर न किसी के आश्रय में रहते थे, भगयान्‌ के भरोंसे पर रहकर पूरे कुल का भग्ण पोपण करते थे। ये प्राच्यं या शुरू तथा उनकी पनी शुरूआनी 'अपने पुरी में तथा पढने साये दूसरे विद्यार्थियों में अरमान भी भेदभाय नहीं मानते थे । वे विरथी सदगहस्थ द्विनानियों के घरों में मिक्षा के लिये जाते थे । गृहस्थी भोलस चनाकर-यलियेश्वदेव करके-पिद्यार्थियों की प्रतीना से येे ररतं थे । माताये वार रार हर पर श्राकर देखती यान श्म पिद्यार्था मिना के लिये नहीं 'आाये । तभी विद्यार्थी ञाकर कहने--'भयति मिक्षा देहिं' माताओं का हृदय--उन भोले वन्चों को देसक्रर भर श्ञाता था, अपने बच्चो की याद झा जाती । हमारे बच्चे भी ऐसे




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